कुछ सच - कुछ झूठ | Kuchh Sach : Kuchh Jhooth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जेरे साहित्य की आदि प्रेरणा ४ हुए महीनों अपने रोगियों को 'डोज़' पिछाए चले जाते है । बात सन्‌ !३८ की है। उन दिनों में आगरे के 'साहित्य संदेश' में था। बाबू गुलाबराय उसके प्रधान संपादक थे। 'साहित्य संदेश” की सेवा का पुरस्कार तो उन्हें वाषिक ही मिलता था, मगर वहू नियमित रूप से एक बार पत्र के आफिस में अवश्य आया करते थे। और क्योंकि पुरस्कार की मात्रा कुछ स्वल्प होती थी, इसलिए बाबूजी का आफिस में ठहराव भी कुछ ही मिनटों का होता था। उन्त दिनों उन्होंने एक,भेस बांध रखी थी। भेंस तो और भी कुछ लोग बांध लेते हें और उसका दूध भी आराम से पीते हैं, मगर आलोचक बाबू गुलाबराय उससे दूध-घी' के अतिरिक्त एक और काम भी लेरहे थे। वह शायद बारीकी से इस बात का अध्य- यन कर रहे थे कि 'अवल बड़ी होती है या भेंस ? ” इसी लिए जब कभी हम लोगों से मिलते तो साहित्य की चर्चा तो जरा कम होती, मगर भेंस' विषयक व्याख्यान काफी रूम्बा चलता। दार्शनिक बाबूजी की भेंस भी कोई राधारण नहीं थी । बह बाबूजी के बगीचे के पत्ते छोड देती और केठे खा जाती । क्या रियों में गुलाब खिले रहते, मगर दूध न जम पाती । वह गोभी के पत्तों को चबा जाती, मगर फल को बाबूजी की रसोई के किए सम्हार रखती । भेंस के यही गुण वाबूजी की नजरों में क्छ से बढ़ चके थे! मैः 'साहित्य संदेश” का काम तो मुस्तैदी से करता ही था, मगर उनके भेंस-पुराण को भी बड़ी श्रद्धा के साथ सुना करता था। इस लिए में उनके स्नेह का, दध वेने वाली भस के बराबर तो नहीं, फिर भी अच्छा पात्र हो उठा था। वह अक्सर भेंस का सठा पीने के लिए मुझे अपनी कोठी पर आमंत्रित किया करते थे। जब-जब में बाबूजी की भेंस को देखता ओर उसकी चर्चा सुनता तो मुझे अपने में एक अजब फ्रफ्री- सी उठती अनुभव होती । एक दिन उस भैस ने बड़ा पराक्रम कर दिखाया । बाबूजी ने मेंस के लिए-सब प्रकार के सर्वोत्तम प्रबन्ध कर छोड़े थे, मगर उसके स्नान की समुचित' व्यवस्था नहीं थी । बाबूजी स्वयं गुसछखानें के टब में इेब- कर “कठौती में गंगा' का आह्वान करते, मगर भेंस बेचारी को नल के




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