हिन्दी - जैन - साहित्य - परिशीलन भाग - 2 | Hindi - Jain - Sahitya - Parisheelan Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आठवाँ अध्याय वर्तेमान काव्यधारा और उसकी विभिन्न प्रवृत्तियाँ हिन्दी जैन साहित्यकी पीयूषधारा कल-कल निनाद करती हुई अपनी शीतलूतासे जन-मनके सतापको आज भी दूर कर रही है। इस बीसवी शताब्दीमं भी जैन साहित्यनिर्माता पुराने कथानकोकों लेकर ही आधु- निक शैली और आधुनिक भाषामे ही सजन कर रे दै । भक्ति, लाग, वीरनीति, श्रगार आदिः विषयोपर अनेक छेखकरोकी ठेखनी अविशम रूपसे चल रही है। देश, काछ और वाताबरणका प्रमाव इस साहित्यपर, भी पड़ा है । अतः पुरातन उपादानोंमे थोड़ा परिवर्तन कर नवीन काव्य- भवनोका निर्माण किया जा रहा है। महाकान्योमे वर्धमान इस युगका श्रेष्ठकाव्य है। इसके स्चमिता स्वी कवि अनूप शर्मा एम, ए. है । इस महाकाव्यकी शरी संस्कृत बर्दमाव काव्योके अनुरूप है। संस्कृतनिष्ठ हिन्दीमे वंशस्थ, द्ुतविछमम्बित और माढिनी इत्तोंमे यह रचा गया है। इसमे नख-शिखवर्णन, प्रभात, संध्या, प्रदोष, रजनी, ऋ, सूरय, चन्द्र आदिका वर्णन प्राचीन काव्योके अनुसार है| इस महाकाव्यका कथानक मगवान्‌ महावीरका परम-पावन जीवन है | कविने स्वेच्छानुसार प्राचीन कथावस्तुमे हेरफेर भी किया है| दो- चछ र्‌ स्थलोकी कथावस्तुमें जैनधर्मकी अनमिनताके उस कारण वैदिक-धर्मको छा वैठाया है। भगवानकी बालक्रीडाके समय परीक्षार्थ आये हुए देवरूपी सर्पका दमन ठीक कृष्णके कािय-दमन के समान कराया है। सर्पकी मवंकरता तथा उसके कारण प्रकृति-विक्षुब्धता भी ल्गमग वैसी ही है। कवि कहता है।




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