विविध प्रसंग 2 | Vividh Prasang 2
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
226 MB
कुल पष्ठ :
539
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)राष्ट्रों का लक्ष्य केवल धन और. प्रभुत्व का संग्रह था । न्याय, प्रेम, सद्व्यवहार, दया
और धर्म का मान घटते-घटते शुन््य हो गया था। धन ही धर्म था, घन ही न्याय और
धन ही सब कुछ । जनता केवल धन-वृद्धि की सामग्री मात्र समझी जाती थी। पर इस
युद्ध ने इस स्थिति में बहुत करु संशोधन कर दिया ह । स्वेच्छाचारिता का संपृ
नाश हो गया है--चाहे वह प्रधान व्यक्तियों के हाथों में रही हो और चाहे राज-कर्म-
चारियों के । रूस, जर्मनी, आ्रास्ट्रिया श्रादि देशों में श्रब॒ जनता स्वयं अपने भाग्य की
अधिकारिणी बनती जा रही है। प्रभुत्व और राज्य-विस्तार के लिए वह अपने रक्त
बहानेवालों को भ्रव कठिन से कठिन दरड देने पर प्रस्तुत है ।
यह तो हुआ रखण-परास्त देशों का हाल | विजय-प्राप्त देशों में भी जनता के
स्वत्व भ्रौर अधिकार बढ़ा दिये गये हैं। इंगलेण्ड ने स्त्रियों को श्रभी तक राजकीय
स्वत्वों से वंचित रखा था । मजदूर श्रौर किसानों मे भी कितनों ही को ये स्वत्व प्राप्त
न थे। पर अरब पालमिर्ट में बैठने श्रौर उसके मेम्बरों के चुनने का अ्रधिकार इतना
विस्तृत हो गया है कि वोटरों में लगभग अस्सी लाख स्त्री-पुरुषों की संख्या बड़ गयी है ।
केवल इतना ही नहीं, मजदूरों की स्वास्थ्य-रक्षा, उनकी मज़दूरी की वृद्धि और श्रन्य
नाना प्रकार की सुविधाओं का प्रयत्व किया जा रहा है । सचमुच जनता का इतना गौरव
इस युद्ध से पहले कभी न था। वास्तव में इस युद्ध में अगर किसी की जीत हुई है तो
वह है जनता की जीत । इस युद्ध ने जनता के लिए वह कर दिया है जो फ्रांस की राज्य-
क्रान्ति ने भी न किया था ।
इस युद्ध-रूपी क्षीर-सागर के मथने से दूसरा फल-रत्न यह् निकला है कि श्रब
निरबंल जातियों को शक्ति-सम्पन्न जातियों का आहार नहीं बनने दिया जायगा । श्रव
तक शक्तिशाली जाति्याँ निबल को श्रपना खाद्य समती थीं । जिसकी लाठी उसकी
भैस का सिद्धान्त सवंमान्य था । पोलैणड अपनी इच्छा के विरुद्ध जर्मनी, रूस, श्रास्ट्रिया
आदि देशों का ग्रास बना हुआ था | सबिया पर आस्ट्रिया के दाँत थे। राज्य-विस्तार
की धुन में इस बात की रत्ती भर भी परवाह न की जाती थी कि जिन पर हम अ्रधिकार
जमाना चाहते हैं वास्तव में उनकी अपनी इच्छा क्या हैं । विजयी राजा श्रथवा साम्राज्य
को अधिकार था कि परास्त देशों के जिस भाग को चाहे हड़प बैठे । यहाँ तक धाँधली
होती थी कि दहेजों में राष्ट्रो के वारे-न्यारे हो जाते थे । परन्तु श्रव इस दुरवस्था का
संशोधन हो रहा है । श्रव भविष्य में राष्ट्रों के साथ वस्तुओं या पशुझ्रों के समान व्यवहार
नहीं किया जायगा । प्रत्येक जाति को इस बात का श्रधिकार होगा कि वह अपने भाग्य
का भ्राप निर्णय करे, वह जिस साम्राज्य के भ्रधीन रहना चाहे रहे, और, उसकी इच्छा हो
तो, स्वयं श्रपना राज्य-शासन झाप करे। हम नहीं कह सकते कि इस प्रथा का क्या फल
.. होगा। संभव है, संसार असंख्य छोटे-मोटे राज्यों में विभक्त हो जाय, पर कुछ भी हो
उसका फल इतना श्रवश्य होगा करि राज्यविस्तार की कुचेष्टा का लोप हो जायगा ।
२० | ॥ विविधप्रसंग ॥ `
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