जैनधर्म की उदारता | Jaindharm Ki Udarata
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
118
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about ज्योतिप्रसाद जैन - Jyotiprasad Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परमेष्ठिने नमः
जेनधर्म की उदोषस्तभ्यः
~ ~न ~~ ८
पापियों का उद्धार ।
जो प्राणियं का उद्धारक हो उसे धर्म कहते हैं। इसी लिये
धर्म का व्यापक,साव या उदार होना आवश्यक हे । जहां संकुचित
दृष्टि हे, स्वपर का पक्षपात हे, शारीरिक अच्छाई बुराई के कारण
आन्तरिक नीच झँचपने का भेद भाव हैं वहां धर्म नहीं हो सकता
धमं आत्मिक होता है शारीरिक नहीं । शरीर की दृष्टि से तो कोई
भी सानव पवित्र नहीं है । शरीर सभी अपवचित्र हैं । इसलिये आत्मा
के साथ धर्म का संबंध मानना ही विवेक है | लोग जिस शरीर को
डँचा समभते हैं उस शरीर वाले कुगति मे भी गये ह ओर जिनके
शरीर नीच समभे जति दँ वे भी सुगति को प्राप्त हुये हं । इसलिये
यह निर्विवाद सिद्ध हे किं धर्म चमड़े में नहीं किन्तु आत्मा में
होता है । इसी लिये जैन धमं इस बात को स्तया प्रतिपादितं
करता है कि अत्येक प्राणी अपनी रुकृति के अनसार उच्च पद प्राप्त
कर सकता है । जन धर्म का शरण लेने के लिये उसका द्वार सबके
लिये सर्वदा खुला हे । इस वात पो रविपेणचाये ने इस प्रकार
स्पष्ट किया है कि-
अनाथानामवंधुनां दद्धाखं सुदुःखिनाम् ।
भिनशासनमेतद्धि परमं शरणं मतम् ॥
अर्थात--जो अनाथ हैं, वांधव विह्ीन हैं, दरिद्री हैं, अत्यन्त
दुखी हैं. उनके लिए जन धर्ग परम शरणभूत हे. ।
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