संक्षिप्त मेरी कहानी | Sankshipt Meri Kahani
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
286
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मेरा बचपन १७
और होशियारी की मूर्ति समझता था और दूसरों के मुकाबले इन
बातो में बहुत ही ऊँचा और वढा-चढा पाता था। में अपने दिल से
मसबे बाधा करता था कि बड़ा होने पर पिताजी की तरह् होरगा ।
पर जहा मे उनकी इज्जत करता था ओर उन्हे बहुत चाहता था
वहा में उनसे डरता भी बहुत था। नौकर-चाकरों पर और दूसरों
पर बिगड़ते हुए मेने उन्हें देखा था। उस समय वह बड़े भयकर
मालम होते थे ओर म मारे डर के कापने रूगता था। नौकरो के
साथ उनका जो यह बर्ताव होता था, उससे मेरे मन में उनपर
कभी-कभी गुस्सा आ जाया करता थव। उनका स्वभाव दरअसल
भयंकर था और उनकी उम्त्र के ढलते दिनो मे भी उनका-सा गुस्सा
मुझे किसी दूसरे मे देखने को नही मिला। लेकिन खशकिस्मती से
उनमे हसी-मजाक का माद्दा भी बडे जोर का था और वह इरादे
कं बड़ पक्कं थे! इससे आम-तौर पर अपने-आप पर जब्त रख
सकते थे । ज्यो-ज्यो उनकी उग्र बढती गई उनकी सयम-शक्ति
बढती गई; और फिर शायद ही कभी वह ऐसा भीषण स्वरूप
धारण करते थे।
उनकी तेज-मिजाजी की एक घटना मुझे याद है, क्योकि
बचपन ही में में उसका शिकार हो गया था। कोई ५-६ वर्ष की
मेरी उस्र रही होगी । एक रोज सेने पिताजी की मेज परदो
फाउण्टेन-पेन पड़ देखे । मेरा जी कुलचाया । मेने दिक मे कहा--
पिताजी एक साथ दो पेनों का क्या करेगे ? एक मेने अपनी जेव मे
डाल लिया । बाद में बडी जोरो की तलाश हुईं कि पेन कहां चला
गया ? तब तो मे घबराया 1 मगर सेने बताया नही । पेन मिल गया
ओर मं गूनाहुगार करार दिया गया । पिताजी बहुत नाराज हुए
ओर मेरी खूब मरस्मत की 1 मे ददं व अपमान से अपना-सा मुह्
लिये मा की गोद में दोड़ा गया और कई दिन तक मेरे दर्दे करते
हुए छोटे-से बदन पर क्रीम और मरहम लगाये गये ।
लकिन मुझे याद नही पड़ता कि इस सजा के कारण पिताजी
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