संक्षिप्त मेरी कहानी | Sankshipt Meri Kahani

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Sankshipt Meri Kahani by जवाहरलाल नेहरू - Jawaharlal Neharu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरा बचपन १७ और होशियारी की मूर्ति समझता था और दूसरों के मुकाबले इन बातो में बहुत ही ऊँचा और वढा-चढा पाता था। में अपने दिल से मसबे बाधा करता था कि बड़ा होने पर पिताजी की तरह्‌ होरगा । पर जहा मे उनकी इज्जत करता था ओर उन्हे बहुत चाहता था वहा में उनसे डरता भी बहुत था। नौकर-चाकरों पर और दूसरों पर बिगड़ते हुए मेने उन्हें देखा था। उस समय वह बड़े भयकर मालम होते थे ओर म मारे डर के कापने रूगता था। नौकरो के साथ उनका जो यह बर्ताव होता था, उससे मेरे मन में उनपर कभी-कभी गुस्सा आ जाया करता थव। उनका स्वभाव दरअसल भयंकर था और उनकी उम्त्र के ढलते दिनो मे भी उनका-सा गुस्सा मुझे किसी दूसरे मे देखने को नही मिला। लेकिन खशकिस्मती से उनमे हसी-मजाक का माद्दा भी बडे जोर का था और वह इरादे कं बड़ पक्कं थे! इससे आम-तौर पर अपने-आप पर जब्त रख सकते थे । ज्यो-ज्यो उनकी उग्र बढती गई उनकी सयम-शक्ति बढती गई; और फिर शायद ही कभी वह ऐसा भीषण स्वरूप धारण करते थे। उनकी तेज-मिजाजी की एक घटना मुझे याद है, क्योकि बचपन ही में में उसका शिकार हो गया था। कोई ५-६ वर्ष की मेरी उस्र रही होगी । एक रोज सेने पिताजी की मेज परदो फाउण्टेन-पेन पड़ देखे । मेरा जी कुलचाया । मेने दिक मे कहा-- पिताजी एक साथ दो पेनों का क्या करेगे ? एक मेने अपनी जेव मे डाल लिया । बाद में बडी जोरो की तलाश हुईं कि पेन कहां चला गया ? तब तो मे घबराया 1 मगर सेने बताया नही । पेन मिल गया ओर मं गूनाहुगार करार दिया गया । पिताजी बहुत नाराज हुए ओर मेरी खूब मरस्मत की 1 मे ददं व अपमान से अपना-सा मुह्‌ लिये मा की गोद में दोड़ा गया और कई दिन तक मेरे दर्दे करते हुए छोटे-से बदन पर क्रीम और मरहम लगाये गये । लकिन मुझे याद नही पड़ता कि इस सजा के कारण पिताजी




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