कर्मग्रन्थ भाग - 3 | Karm Granth Bhag - 3

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Karm Granth Bhag - 3 by देवकुमार जैन - Devkumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) कारण क्या है ? इस 'क्या' का समाधान करने लिए विभिन्न दाशेनिको, चिन्तको ने अपने-अपने विचार एवं दृष्टिकोण प्रस्तुत किये है, जिनका सकेतत श्वेताश्वेततरोपनिषद्‌ १/२ के निम्नलिखित श्लोक मे देखने को मिलता है-- काल: स्वभावो नियतियहच्छा भृतानियोनि: पुरुष इति चिन्त्यस्‌ । संयोग एषां न॒ स्वात्मभावादात्माप्यनीश: सुखदुःख हेतोः ॥ काल, स्वभाव, नियति, यहच्छा, प्थिव्यादि भूत और पुरुष--ये विभिन्नता के कारण है । जीव स्वय अपने सुख-दु ख आदि के लिए असमर्थ है, वह पराधीन है। इसीप्रकार से अन्य-अन्य विचारो ने अपने-अपने शप्टिकोण उपस्थित कियिदहै। यदि उन सव विचारो का सकलन किया जाये तो एक महा निवन्ध तेयार हो सकता है। लेकिन यहाँ विस्तार मे न जाकर सक्षेप से कारणो के रूप में निम्नलिखित विचारो के वारे मे चर्चा करते हैं-- १ काल, २ स्वभाव, ३ नियति, ४ यहच्छा, ५ पौरुप, ६ पुरुष (ईश्वर) । ये सभी विचार परम्पर एक दूसरे का खडन एव अपने द्वारा ही कार्य सिद्धि का मडन करते है इनका हेष्टिकोण कमश. नीचे लिखे अनसार है । ९ शन कालवाद--यह दशंन कालको मुख्य मानता है । इस दर्शन का कथन है (के ससार का प्रत्येक कार्य काल के प्रभाव से हो रहा है। काल के विना स्वभाव, पौर्ष आदि कुछ भी नहीं कर सकते है । एक व्यक्ति पाप या पुण्य कार्य करता है, किन्तु उसी समय उसका फल नही मिलता है। योग्य समय आने पर उसका अच्छा या बुरा (शुभ-अशुभ) फल मिलता है। ग्रीष्म काल में सूर्य तपता है और शीत ऋतु मे शीत पडता है। इसी प्रकार मनुष्य स्वय कुछ नही कर सकता है किन्तु समय आने पर सव काय यथायोग्य प्रकार से होते जाते है।यह सव काल की महिमा है। कालवाद का हृष्टिकोण यह हे-- काल: सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजा। काल: सुप्तेष्‌ जागति कालोहि दुरतिक्रमः 11 णीयो जाके ও क ৬ ९ महाभारत १/२४८




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