युरोप के झकोरे में | Europ Ke Jaker Main 

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Europ Ke Jaker Main  by श्री सत्यनारायण -Shri Satyanarayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूलते-भटकते । ६ कारण वार चार करवटे यदलनी पड़तीं । जिप्सी युवक पास में ही वेहला लिये बैठा था। अक्सर, जब कमी भी मन खराब होता, उसे कोई बढ़िया गत बजाने के लिये कहता । वह मेरा रख पहचानने लगा था। उसीके हिसाव से कोई वेदना अ्रथवा उत्साह भरा समीत चह मुके खना दिया ` करता शरोर मेरी तव्रीयत वंहल जाया करती । पर उस दिन उससे कुछ कहने की इच्छा नहीं हो रही थी | ग्रायारागदीं का जीवन होने के कारण अपने आप पर काफी कः लाहट आ रही थी। मेरे मन में बार बार সাবা आखिर इस तरह की जिन्दगी भी कोई जिन्दगी है ! न घर न द्वार,बात पूछने वाला भी कोई नहीं ; ओर सवेरा होते ही यहं सोचने लगना कि आ्राज रोटी किस तरह मिल सकेगी, ओर शाम होते ही इसकी चिन्ता करने लगना कि कहीं सोने का ठिकाना लगे ! भला इस तरह की जिन्दगी मं भी कोई लुत्फ है ! इस त्तरह की जिन्दगी को तो नीरस, आनन्द-रहित ओर सुर्दा-दिल ही मानना पड़ेगा ।? मैं क्‍यों इस प्रकार का हूँ, ओर मेरा जीवन क्यो ऐसा वन गयी है--- ऐसे प्रश्न वार बार मन मे उठने लगे। पर इससे विभिन प्रकार का जीवन किस प्रकार का हो और वह शुरू भी किस प्रकार किया जाय १ इस प्रश्न के उत्तर में एक बात जम कर बैठती जाती थी कि चाहे जो भी हो, हवा के साथ वहते चलने से मेरे जीवन मे कोई सुधार नही हो सकता । उस दिन तीसरे पहर जिप्सियों ने वहाँ से अपना डेरा उठाया | उन्होंने अपना सब असबाव समेट, और वचो की गिनती कर वोकाई कर ली । गाड़ी की सब खिड़कियाँ वन्‍्द कर ली गयी । एक प्रोढ़ा জী अपना लर्हेगा फैला कर कोचवान की जगह ला बैठी | एक हाथ से वह




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