रीतिविज्ञान | Reete Vigyan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
190
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रीतिविज्ञान `: परिधि खीर प्रयोजनं १७
इन चारों वाक्यों में संदेश लगभग एक ही है, किन्तु जितनी संक्षिप्तता,
प्रत्यग्रता और नुकीलेपन के साथ यही संदेश चौथे वाक्य के द्वारा अभिहित किया
जा सका है, उतने अच्छ ढंग से पहले तीन वाक्यो के द्वारा तहीं। क्यों यह चौथा
विधान सार्थक है ? इसलिये कि केवल जीवित और वत्तमान वस्तु के संदर्भ में भूत
काल की क्रिया का प्रयोग कर देने से एक साथ दो बातें ध्वनित होती हैं--पहली
तो यदे कि उसका जीवित न रहना उसी प्रकार सुनिश्चित है, जैसे कि वहू घटना
पहले से घट चुकी हो, और दूसरी यह कि रमणीयं कहने से आशसा-प्रेरित अनु-
कम्पा के भावना ही प्रमुख रूप से अभिव्यक्त होती ह ¦ साथ ही अपने अपरे
ने मारते की इच्छा होते हुए भी मारने की लाचारी “क्षत्तिय-कुमार कहने से
दयोतित होती है, क्योंकि क्षत्तिय यदि युद्ध के लिए प्रोत्साहित करता है, तो उसकी
चुनौती के जवाब में उसके साथ दूसरा व्यवहार संभव ही नहीं । इस प्रकार भाषा-
गत रीतिविधान का यह बौद्धिक आधार व्याकरण के भीतर से ही उद्भूत है और
व्याकरण कौ कोटियो कौ एके अतिरिक्त अर्थँवत्ता प्रदान करने के लिए है ।*
अभी तक पुराने ढरे के रीति-विज्ञान में या उक्ति-वैचित्यपरक भाषाविज्ञान
में या अपनी भाषा का प्रयोग करे, तो जलंकार-शास्त्र में दो वस्तुओं के सादश्य
ढूंढते समय प्रतीति के ढंग पर ब्रल दिया गया है। जैसे, मदि सुन्दर मुख का वर्णन
करना हो, तो कई प्रकार से यह वर्णन कर सकते हैं --
१. चाँदसा मुखड़ा ! (उपमा)
२. मुख-चन्द्र एकाएक उंदित हुआ ! (रूपक)
३ यह चाँद एकाएक कहाँ से दिखा ? (रूपकातिशयोक्ति )
४. यह मुख तो चन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर है, क्योकि यहु निष्कलंक है !
(व्यतिरेक)
५. यह् मुख यहीं है, यदहं तो पुरिमा का चन्द्र है ! (अपह् चति)
६. कया में मुख देख रहा हूँ या चन्द्रमा ही देख रहा हूँ ? (सन्देह)
७. इस मुख के समान बस यही मुख है (अनन्वय )
इस शास्त्र की दुवंलता यह है कि इसमें इस प्रकार की उक्तियों का विश्लेषण
ठीक-ढीक साधम्थ को बतला कर समाप्त हो जाता है, इसकी चिन्ता यहाँ नही की
जाती है कि संदर्भ के उपयुक्त कौन-सा विशेष प्रकार अधिक उपयोगी है या उपमा
के स्थान पर रूपक, रूपकातिशयो किति, व्यतिरेक, सन्देह, अनन्वयध---कौन सी अल-
कार-भंगिमा अधिक साथक होगी। दुसरे शब्दों में, इस प्रकार के विश्लेषण मे
अलंकार का सतही व्याकरण तो है,किन्तुउनका आन्तरिक व्याकरण नहीं उपस्थित
किया गया है, जबकि विध्यात्मक रीति-विज्ञान में इन तमाम प्रकारके सदश उक्ति-
खण्डों में व्यतिश्क्तिता या विकल्प ढँढने मे अधिक वल विया जाता है। एक सीधी
सपाट सादश्य-विधानात्मक उक्ति कभी-कभी अधिक पैनी हो सकती है। जैसे--
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