प्रसादोत्तर कालीन नाटक | Prasadottar Kalin Natak

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Prasadottar Kalin Natak by रघुवंश - Raghuvansh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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লিখন मैं बंधा हुआ है কি জা ভা ভীত লা एचना हौत। है, वैसे हो उसके विनाश का प्रक्रिया मां शर्म्म द्यी जातत है | बर्गसां के अनुसार यह प्रकाति गतिमान, फिक्सनझोह হ্ আছিল লব ষ্র | पदाने की व्यर्वास्थत करने को इच्छा एचनात्मक शक्ति कौ बाधघता है । वह ब्रद्ाण्ड कौ * रचनात्मक दुम न्ति मानता है । जिशप तया सन होता है । व्याक नै यहं रचनात्मक प्रक्रिया स्वय कमै पदाधे से অললস জন্‌ পতন रुप डत है । इस मण्ट्छ पट्‌ व्यक्त कै जीवन व्ल पृण विकास--अनैव अवरौधौं द्वापा -- आवश्यक सर्जनात्मक शॉकि तक पहुंचने का प्रथास है । प्रकृति सदैव रचनात्मक कार्स कया करतो है । वह आवश्यकता सै कहाँ अधिक उत्पादन करत है । इस अतिशय उत्पादन में से वह भरेष्ठ,यौग्य और गुणात्मक कौ चुनकर उसका पौषण' करतों है, तथा शैण कौ नष्ट हो जाने के लिए छौह देती है । प्रकृति का यह चुनाव सदव नष्ठ से সঙ্তলতে यौग्य से यौग्यतर को और अग्रसर हौता है । हार्विन विव्यतवारदी জিরা কা प्रतिपादन करते हु बताता हैं कि प्राकृतिक बुनाव ने मनुष्य के शारीरिक,बो द्विक, मौलिक तथा सामाजिक विकास मैं यौगदान दिया है । वह आगे कहता है कि अन्य जानवरों कम माति व्यक्ति भी संस्या मैं,जीवन मिर्वाह के साथनों को सोमा को अपैक्ष ग बढ़ना चाहता है और यहा उसका जोवनं क अस्तित्व कै ष सवथ ` प्रारम्भ हौता हैं | जेकिक विज्ञान इस सत्य कौ स्थापित करता है कि प्रकृति केवल बातावरण हो नहां दैतो 8,अपितु वह व्यक्ति के आन्तरिक परिवतैन में भी 'विक क्हण्ट व्यक्ति के १ एस०ह० फ़ापस्ट,जूनियर ; 'बैसिक टं।चुर्न्गस आफ़, ग्रैट फ़िलासफ :स ,प०४१२ २ ₹सम० चिनचैरस्टैः : *बाइजओर्लेजि रह इट्स शन ट्‌ यैनकारण्ड ০ (४-१६ ২ হল पबल ই “ভি ঈল-- ৭ ফাহভিলটে ৯০ ২9 ४ ৮৪: 2১... 28. ঘু9 २६ ५ & ক ॥ ॐ । चि २०सप०विन॑ैस्टे *बाइओऑर्लेंजि रंड इटू ५ टू मैनकाइन्ड ,पुछ १३ ए्सण्डैऽ फरस्ट,य्‌- : *बैसिक टीचुइन्सस आफ फिलासफ: सौ ,प० ४२




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