साधुमार्ग और उसकी परम्परा | Sadhumarg Aur Uski Prampara
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
82
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भी फहा जाता थां । इस ढूंढे थे ठहर जाने से सांधुमागी सतो को
टुढिया' के नाम से भी पुकारा जाने लगा ।
গন स्थानकंवासी, धावीस संप्रदाय, ध्ावीस टोला गौर
ढू ढिया साधुमार्ग के ही भपर नाम हैं ।
लोकाशाह ने कोई नया धर्म नहीं चलाया था, अपितु साधुमार्ग
को विकसित करने में श्रपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । इस प्रकार
ग्रनेक सकटो को सहन करता हुश्रा, उपनार्मोसे प्रसिद्धि को प्राप्न
करता हुआ 'साधुमार्ग' आ्राज भी अ्रनवरत प्रवाहित हो रहा है ।
वीर निर्वाण सवत् २१८० के श्रास-पास आचार्य श्री रुपनाथ
जी म सा. के शिष्य कठालिया ग्राम के श्री भीखणजी स्वामी ने
दयादान के मूलभूत सिद्धान्त की उत्थापक मनकल्पित प्ररूपषणा करना
प्रारम নব दिया । बहुत कुछ समझाने पर भी जब वे नही माने तो
সানা श्री स्यनायजी म. गा. नै भौपणजी रवामी को अपने सप्र से
बहिप्कृत कर दिया | गुर से वहिष्कृत होकर इस्होने नये पथ की
स्थापना को, जो कि 'तेरह पथ! के नाम से समाज के समक्ष आया |
इस प्रकार 'साधुमार्ग' श्रनेक संप्रदाय, पथ, मत मे विभक्त
हीता हुआ भी मूलभूत रूप में साधुमार्ग भाज भी अपने श्रक्षुण्ण
प्रस्तित्व के साथ निरन्तर गतिमान है । जिस साधुमार्ग से সমিলন
फ्रान्तिया घटित हुई हैं ओर झाज भी घटित होती जा रही हैं वर्तमान
में साधुमार्यी सघ के; एकमात्र अनुशास्ता आवचाय॑ शी नानेश के साप्रिध्य
में एक साथ संपन्न २४ दीक्षाय्रों ने सेक्ों वर्षों के अतीत इतिहास
को प्रत्यक्ष कर दियाया है । जिनके कुशल नेतृत्व यो पाकर साधुमार्ग
निरम्तर श्रेयस् की गोर गतिशील है । प्सीलिये प्रभु से पूर्व में फरमा
दिया था कि मेरा णामन २१ हजार वपं पर्यन्न ततता रहेगा ।
यम्य दोवेणं भते दवे मारएवासे হাত श्रोयपिपिणीग,
देपाणुष्यियाग फेबतिय फाल नित्ये ग्रनपु निज्जन्मद् ?
गोयमा-ज स्वृद्दीवे भारएरागे एमीसे शोसविणीर संग एगजिस
प्रास-महुस्साई पितों झणुमि|ज्जस्सई (संगदती सूत्र श २० ३, ६)
{ ७ )]
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