साधुमार्ग और उसकी परम्परा | Sadhumarg Aur Uski Prampara

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Sadhumarg Aur Uski Prampara by मुनिज्ञान -munigyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भी फहा जाता थां । इस ढूंढे थे ठहर जाने से सांधुमागी सतो को टुढिया' के नाम से भी पुकारा जाने लगा । গন स्थानकंवासी, धावीस संप्रदाय, ध्ावीस टोला गौर ढू ढिया साधुमार्ग के ही भपर नाम हैं । लोकाशाह ने कोई नया धर्म नहीं चलाया था, अपितु साधुमार्ग को विकसित करने में श्रपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । इस प्रकार ग्रनेक सकटो को सहन करता हुश्रा, उपनार्मोसे प्रसिद्धि को प्राप्न करता हुआ 'साधुमार्ग' आ्राज भी अ्रनवरत प्रवाहित हो रहा है । वीर निर्वाण सवत्‌ २१८० के श्रास-पास आचार्य श्री रुपनाथ जी म सा. के शिष्य कठालिया ग्राम के श्री भीखणजी स्वामी ने दयादान के मूलभूत सिद्धान्त की उत्थापक मनकल्पित प्ररूपषणा करना प्रारम নব दिया । बहुत कुछ समझाने पर भी जब वे नही माने तो সানা श्री स्यनायजी म. गा. नै भौपणजी रवामी को अपने सप्र से बहिप्कृत कर दिया | गुर से वहिष्कृत होकर इस्होने नये पथ की स्थापना को, जो कि 'तेरह पथ! के नाम से समाज के समक्ष आया | इस प्रकार 'साधुमार्ग' श्रनेक संप्रदाय, पथ, मत मे विभक्त हीता हुआ भी मूलभूत रूप में साधुमार्ग भाज भी अपने श्रक्षुण्ण प्रस्तित्व के साथ निरन्तर गतिमान है । जिस साधुमार्ग से সমিলন फ्रान्तिया घटित हुई हैं ओर झाज भी घटित होती जा रही हैं वर्तमान में साधुमार्यी सघ के; एकमात्र अनुशास्ता आवचाय॑ शी नानेश के साप्रिध्य में एक साथ संपन्न २४ दीक्षाय्रों ने सेक्ों वर्षों के अतीत इतिहास को प्रत्यक्ष कर दियाया है । जिनके कुशल नेतृत्व यो पाकर साधुमार्ग निरम्तर श्रेयस्‌ की गोर गतिशील है । प्सीलिये प्रभु से पूर्व में फरमा दिया था कि मेरा णामन २१ हजार वपं पर्यन्न ततता रहेगा । यम्य दोवेणं भते दवे मारएवासे হাত श्रोयपिपिणीग, देपाणुष्यियाग फेबतिय फाल नित्ये ग्रनपु निज्जन्मद् ? गोयमा-ज स्वृद्दीवे भारएरागे एमीसे शोसविणीर संग एगजिस प्रास-महुस्साई पितों झणुमि|ज्जस्सई (संगदती सूत्र श २० ३, ६) { ७ )]




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