सुंदरसार | Sundarasar

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Sundarasar  by पुरोहित हरिनारायण - Purohit Harinarayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ८ ) इस प्रकार एक ही भप्रंथ में अनेरू उपयोगी विषय, गीता प्रादि प्रथो की भोति, मनुष्य फे कल्याण के अथे एकत्रित किए हुए हैं। इस ज्ञानसमुद्र की रचना के विषय में दे। एक कथाएं प्रसिद्ध हैं जिनसे स्वामीजी की बुद्धि की प्रतलता श्र उनके पूरे महात्मा होने का परिचय मिलता है। यह प्रन्य कई एक ग्रंथों से पीछे भ्रथात्‌ संवत्‌ १७१० में बना है, तब भी इसकी उत्तमता कौर उपयोगिता के कारण खर्य खामीजी ने झपने समभर मर्थो में इसको प्रथम रखा है । (२ ) “सवेय।”” ( सु दरविलास ) यद्यपि अपने संग्रह में “'ज्ञानसमुद्र'! ही को खामीजी ने प्रथम स्थान दिया है, तथापि रचना श्रार विषयनिरूपण भ्रादि गुणों भ्रौर भाषा तथा झन्य गुणों फे विचार से प्रतीत द्वोता है कि सुंदरदासजी की समस्त रचनाश्रों में 'सवेया” ही मूड्धेन्य है। इसको छापे की पुस्तकों में “सु'दरविज्ञाल”ः ऐसा नाम दिया है। यह नाम प्रंथकर्ता का ते दिया हुआ दे नहीं पीछे से किसी विद्वान ने ऐसा नामकरण कर दिया होगा | लिखित पुस्तकों में स्वेत्र “सवेया” नाम भरर मुद्रिते में सर्वत्र ( एक दो को छोड़कर ) “'सुंदरविलास” नाम मिल्लता है । ..खवेया छंद के पझनेक भेद हैं। उनमें इंदव (मत्तगयंद) आदि समध्वनि प्रतीत होने से तथा सुदरदाखजी के समय में ऐसे छंदें का अ्रधिक प्रचार दोने से और उनका इसी रचना श्रधिक प्रिय होने से इसी की भ्रधिक रचना हुई है और




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