इतिहास एक अध्ययन खंड - १ | Itihas Ek Adyayan Khand - 1

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Itihas Ek Adyayan Khand - 1  by डॉ. निहालकरण सेठी - Dr. Nihalkaran Sethi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नोट संक्षेपकर्ता के संपादक का श्री ट्वायनवी के इतिहास का अध्ययन मानव-जाति की ऐतिहासिक अनुभूति के रूप तथा प्रकृति का क्रमबद्ध विपय है । यह उस समय से आरम्भ होता है जब इस जाति ने, इस समाज ने, जिसे सभ्यता कहते हैं पृथ्वी पर जन्म लिया । इस विंपय की जहाँ तक सामग्री उपलब्ध है, तथा जहाँ तक भाज तक मानव इतिहास की जानकारी है प्रत्येक स्थछ पर पर्याप्त उदाहरणों से 'प्रमाणित' किया गया है । कुछ उदाहरण बहुत ब्योरे से दिये गये है । पुस्तक के इस रूप के होने के कारण संक्षेप करने वाले सम्पादक का कार्य मूलतः: सरल हो गया है । सारे विपयों को ज्यों-का-त्यों रखा गया है यद्यपि संक्षेप में । कुछ सीमा तक उदाहरणों की संख्या कम कर दी गयी है, भौर व्योरे में कुछ अधिक कमी की गयी है । मेरी समझ में इस खण्ड द्वारा श्री ट्वायनवी के ऐतिहासिक दकोन का समुचित निरूपण हो जाता है जैसा कि उन्होंने अपने छः खण्डों में किया है यद्यपि अभी सम्पूर्ण कार्य समाप्त नहीं हुआ है। यदि ऐसा न होता तो श्री द्वायनवी इसके प्रकादान की आज्ञा न देते । किन्तु सुझे दुख होगा यदि इसे मूल पुस्तक का प्रतिरूप मान लिया जायगा । काम चलाने के लिए यह प्रतिरूप हो सकता है किन्तु आनन्द के लिए नहीं; क्योंकि मूल पुस्तक का सौंदय उसके आनन्ददायक उदाहरणों में है । विपय की महत्ता की दृष्टि से मूल पुस्तकें ही समुचित हैं । मैने मूल पुस्तक के ही वाक्य तथा अनुच्छेद रखें है और मुझे इस वात की आशंका नहीं है कि वे नीरस होंगे । किन्तु साथ ही मेरा यह भी मत है कि मूल पुस्तकें अधिक आनन्द देंगी । मैने यह संक्षेप अपने मनोरंजन के लिए किया था । श्री टुवायनवी को इसका पता न था भौर प्रकाशित करने की दृष्टि भी न थी । समय काटने के लिए मुझे यह अच्छा व्यसन मिल गया था । पूरा होने पर ही मैने श्री ट्वायनवी को वताया और उनको दे दिया कि यदि उनकी इच्छा हो तो इसका उपयोग करें । इस पुस्तक का इस प्रकार जन्म हुआ, इसलिए मंन कद्दी-कहदी अपनी ओर से भी उदाहरण दे दिये है जो मूल पुस्तक में नही है । कहा भी गया है कि कि “उस बैल का मुंह नहीं बन्द करना चाहिए जो अपने मालिक का अनाज खा रहा हो 1” मैने जो उदाहरण दिये है वे बहुत कम है और उनका महत्त्व भी कम है । मेरी पाण्डुलिपि को श्री ट्वायनवी ने दोहरा दिया है और उनकी स्वीकृति भी मिल गयी है । उनका विवरण यहाँ अथवा पाद- टिप्पणी में देना आवदयक नहीं है । यहाँ उसको बता देना इसलिए आवश्यक था कि यदि कोई मूछ से तुलना करे तो यह न समझे कि संक्षेप करने में ईमानदारी नहीं वर्ती गयी है । मूल पुस्तक के प्रकाशित होने तथा इसके प्रकाशन के वीच कुछ घटनाएँ ऐसी हो गयी हैँ जिनके का रण मैने अथवा श्री ट्वायनवी ने कही-कही एकाघ वाक्य इसमें जोड़ दिये हैं । किन्तु यह देखते हुए




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