नाथ संप्रदाय | Nath Sampraday
श्रेणी : धार्मिक / Religious, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23.98 MB
कुल पष्ठ :
215
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नोॉथसंप्रदायकात्रिस्तार दे प्रकार का कणुकुर्डल धारण करते थे तो यदद अनुमान भी असंगत नहीं है कि उनके प्रति चितरां श्रद्धाशील कानपा भी कणकुण्डल धारण करते होंगे ने इस पद के इस शब्द की भी रूपक के रूप में व्याख्या की है । यद्यपि यही विश्वास किया जाता है कि ने या गोरचनाथ ने दी कणुझुर्डल धारण करने की प्रथा चलाई थी तथापि कणुकुरडल कोई नई बात नहीं है । इस प्रकार के प्राचीन प्रमाण मिलते हैं जिससे अनुमान होता है कि कणे- कुरडल्घारी शिवमूर्तियाँ बहुत प्राचीन फाल में भी बनती थीं। एलोरा गुफा के कैज्ञास नामक शिवम न्दिर में शिव की एक सदायोगी मुद्रा की मूर्ति पाई गई है । इस मूरति के कान में बड़े बड़े कुरडल हैं । यदद मंदिर श्र सूर्ति सन् ईसवी की श्ाठवीं शताब्दों की हैं । परन्तु ये कणुकुण्डन्त कनफटा योगियों को भाँति नहीं पहने गये हैं । त्रिग्स ने बम्बई की लिटरैरी सोसायटी के धनुवादों से र्दूधत करके लिखा है कि साल- सेटी एलोरा और एलीफेंटा की गुफाओं में जो झाठवों शताब्दी की हैं शिव की ऐसी अनेक योगी-मूतियाँ हैं जिनके कान में वैसे ही बड़े बड़े कुरडल हैं जैसे कन- फटा योगियों के होते हैं घर उनको कान में इसी ढँग से पहनाया भी गया है। इसके झतिरिक्त मद्रास के उत्तरी झार रूट जिले में परशुरामेश्वर का जो मंदिर है सके भीतर ्थापित लिंग पर शिव की एक मूर्ति है जिसके कानों में कनफटा यो गियों के समान कुण्डल हैं। इस मंदिर का पुन संस्कार सन् ११९६ इं० में हुझा था इस लिये मूर्ति निश्चय ही सके बहुत पृव की होगी । टी ० ए० गोपीनाथ राव ने इंडियन एंटिकरी के चालीसवें जिल्द १९११ इ० में इस लिंग का वर्णन दिया है। इनके मत से यह लिंग सन् इंसवी की दूसरी या तीसरी शताब्दी के पदले का नहीं होना घाहिए । इन सच बातों को देखते हुए यह करना संगत नहीं कि मस्स्येंद्रनाथ के पहले भी कणकुरडलघःरी शिव मूतियाँ होती थीं । इससे परंपरा का भी वाई विरोध नदीं होता क्योंकि कहा जाता है कि शिवजी ने ही अपना वेश ज्यों का त्योँ मत्स्येंद्रनाथ के दिया था। एक झनुश्रुति के झतुसार तो शिव का वह वेश पाने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को दीघकाल तक कठोर तपस्या करनी पढ़ी थी । ३२ गोरखनायी शाखा नाथपंथियों का मुख्य संप्रदाय गोग्खनाथी योगियों का है | इन्हें साधारण कनफडा झौर दशनी साधु कहा जाता है । कनफटा नाम का कारण यह हैं कि ये लोग कान फाड़कर एक प्रकार की मुद्रा धारण करते हैं | इस मुद्रा के नाम पर दी इन्हें द्रसनी साघु कहते हैं। यह मुद्रा नाना धातुझों और द्वाथी दाँत की भीं होती है । अधिक घनी मददन्त लोग सोने की सुद्रा भी धारण करते हैं । गोरखनाथी साछु सारे मारतव्ष में पाए जाते हैं । पंजाब दिमालय के पाद देश बंगाल और बस्बई में ये लोग नाथ कह्दे जाते हैं । ये लोग जो मुद्रा धारण करते हैं वे दो प्रकार की होती हैं -- कुरडल थौर दशेन । दर्शन का सम्मान भधिक है क्योंकि विश्वास किया जाता है र्
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