संप्रदाय प्रदीपालोक | Sampradaya Pradeepalok
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
107 MB
कुल पष्ठ :
295
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५
„ प्रकर च्छु प्रष्यकाय नहीं होता, इस बात को सम्रसाण দিক
या गया है । इन सब उपक्रमों के द्वारा अन्यफार ने ओवर्कभाचाय-
चरणों के समय की सुन्दरता और उनके कलिकाल में इस समय
के प्रादर्भाव का जो अनुपम सयुक्षिक प्रतिपादन किया ई--कहना
पढेगा-- यह अन्थकार की अलौकिक सूर हे । इस अकार अक्निमार्ग
पथिकों के अज्ञानानधकार-निवर्तक नामक प्रथमप्रङर सें, वास्तव
जे, अन्वर्थक विषयों का संकलन हुआ हें ४
द्वितीयम्करण से--श्रीनिष्णुस्वामी के चरित का चशंन &,
जिसमें उनकी मानसिक भ्दत्ति का शुकाव भगवान् कौ अर होता
कौर बे सर्ववेदयेदान्त-तास्पयं स्वस्य किसी परमतत की
गवेषणा करते है । फलस्वरूप श्रपने अथक परिम से उन्हें सगवध्सा
हात्कार होता है। आगे चलकर भसगवत्सेवा-प्रणाल्िका--सेव्य-सेवक
क-मगवान के परस्पर-संलाप ( प्रश्नोत्तर-प्रणाली ) से भक्ति-मागं
की प्रणाह्षी-- निर्धारित होती है । इसी प्रकरण में देवी और आपसुर्र
सृष्टि की विभिनज्ञता और भक्तिभाव की प्रधानता का प्रतिपादन किया
यया है ! इस कार अंथकार ने विष्णुस्वामी और भगवान, इन दोनो
उक्ति-प्रत्युक्ति से बहुत कुछ सांग्रदायिक त्वो ऋं स्पष्टीकरण
किया है। ১০৭
तृतीयप्रकरण में--विष्णुस्वामी-संप्रदाय के आचाय विल्वमक्षल
के चरित से उपक्रम किया गया है | बिल्वमंगल के विषय में जो
किम्वदन्तियाँ प्रचलित हें और उन्हें एक ही समझकर जो वियार-विश्वत्
फैल गया है, उसका इससे निराकरण ड्ोता है, जिससे यह स्पष्ट
विदित हो जाता है कि बिल्वमंगल तीन हुए हैं । अतः संप्रदाय के
आचार्य बिल्वसंगल कौन और केसे थे, इसमें संदेह नहीं रह अता ¦
इसके अनन्वर मायावाद की उत्पत्ति के विषय में पुरायाजुलार ३.
“क
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