भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भाग - 3 | Bharat Ke Digambar Jain Tirth Bhag - 3

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Book Image : भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भाग - 3 - Bharat Ke Digambar Jain Tirth Bhag - 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ आरतके दिगस्वर जेन तीष सम्भवतः मधुरामें सर्वप्रथम ऐसी मूर्तियाँ उपलब्ध होती ह, जिन प्रविमार्भकि चरणोकि पास वस्व शण्ड मिलता है। कडोरा या लंगोटसे चिह्नित प्रतिमाओंके निर्माणका काल तो गुप्तोत्तर युग माना जाता है और उस समय भी इस प्रक्ारकी प्रतिमाओका निर्माण अपवाद ही माना जा सकता है। जब निर््रन्थ जन संघमे-से फएूटकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय निकला, तो उसे एक सम्प्रदायके रुपमें व्यवस्थित सूप लेनेमें हो काफी समय लग गया । इतिहासकी दृष्टिसे इसे ईसाकी छठी शताब्दी माना गया है। इसके भी पर्याप्त समयके बाद वीतराग तीर्थंकर मूर्तियोंपर वस्त्रके चिक्कका अंकन किया गया। धीरे-घीरे यह विकार बढते-बढते यहाँ तक पहुँच गया कि जिन-मूर्तियाँ वस्त्रालंकारोंस आच्छादित होने लगीं भौर उनकी बीतरागता इस परिग्रहके आडम्बरमें दब गयी । किन्तु दिगम्बर परम्परामें भगवान्‌ तीर्थकरके वीतराग रूपकी रक्षा अबतक अक्षुण्ण रूपसे चली भा रही है । तीर्थ-क्षेत्रोमें प्राचीन कालसे स्तृप, आयागपट्ट, घर्मचक्र, अष्ट प्रातिहाय युक्त तीर्थंकर मृतियोंका निर्माण होता था और वे जैन कलाके अप्रतिम अंग्र माने जाते थे। किन्तु ११वी-१२वीं शताब्दियोंके बादसे तो प्रायः हनका निर्माण समाप्त-सा हो गया । इस बीसवी छताब्दोीमें आकर मूर्ति और मन्दिरोंका निर्माण संखुयाकी दृष्टिसि तो बहुत हुआ है किन्तु अब तोर्थकर-मूर्तियाँ एकाकी बनतो है, उनमें न अष्ट प्रातिहार्यकी संयोजना होती है, न उनका कोई परिकर होता है। उनमें भावाभिव्यंजना और सौन्दर्यका अंकन सजीव होता है । पूजाकी विधि और उसका क्रमिक-विकास श्रावकके दैनिक आवश्यक कर्मोमें आचार्य कुन्दकुन्दने प्राभुतमें तथा वरांगचरित और हरिवंश-पुराणमें दान, पूजा, तप और शील ये चार कर्म बतलाये है । भगवज्जिनसेनने इसको अधिक व्यापक बनाकर पूजा, वार्ता, दनि, स्वाध्याय, संयम और तपकों श्रावकके आवश्यक कर्म बतलाये | सोमदेव और पद्मनन्दिने देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये बडावश्यक कर्म बतलाये । इन सभी आचार्यने देव-पृजाको श्रावकका प्रथम आवश्यक कर्तव्य बताया है। परमात्मप्रकाश (१६८ ) में तो यहाँ तक कहा गया है कि “तूने न तो मुनिराजोंको दान ही किया, न जिन भगवानूकी पूजा ही की, न पंच पर मेष्टियोंको नमस्कार किया, तब तुझे मोक्षका लाभ केसे होगा ?” इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान्‌को पूजा श्रावकको अवश्य करती चाहिए। भगवान्‌की पूजा मोक्ष-प्राप्तिका एक उपाय है । आदि-पुराण - पर्व ३८ में पृजाके चार भेद बताये है--नित्यपूजा, चतुर्मुखपूजा, कल्पद्ृमपृुजा और अष्टह्िकपृजा । अपने धरते गन्ध, पुष्प, अक्षत के जाकर जिनालयमें जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना सदार्चन अर्थात्‌ नित्यमहं ( पूजा ) कहलाता है। मन्दिर ओर मूर्तिका निर्माण कलना, मृनिरयोकी पूजा करनाभी नित्यमह कहलाता है । मुकुटबद्ध राजाओ द्वारा की सयी पूजा चतुमुंख पूजा कहलाती है। चक्रवर्ती द्वारा की जानेवाली पूजा कल्पदुम पूजा होती हैं। और अष्टाल्लिकामें तन्‍्दीइवर द्वीपमें देवों द्वारा की जानेवाली पूजा अष्टाह्लिक पूजा कहलाती है। पूजा अष्टद्रव्यसे की जाती है-- जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद, दीप, धूप और फल । स प्रकारके उल्लेख प्रायः समी आर्षं अन्धोमे मरते ह । तिलोयपण्णत्ति (पंचम अधिकार, गाया १०२ से १११) मे नन्दी- हर द्वीपे अष्टाद्धिकामें देवो द्वारा मक्तिपूर्वक की जानेवारी पूजाका वर्णन है । उसमें अध्टद्रब्योंका वर्णन आया है। घवला टीकामें भो ऐसा ही वर्णन है। आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण ( पर्व १७, इछोक २५२ ) में भरत द्वारा तथा पर्व २३, इलोक १०६ में इन्द्रों ढरा भगवान्‌की पूजाक़े प्रसंगमें अष्टद्रव्यों का वर्णन आया है।




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