आलोचना - प्रकृति और परिवेश | Aalochana Prakriti Aur Parivesh
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
289
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परिप्रेक्ष्य | ६
अयनी इति में जित परिस्थितियों या तथ्यों का चित्रण करता है, वे जड नही
होते । कलाकार वास्तव में दथ्य का नही, तथ्य की भावता या पतीति का
वित्रण करता है । यहाँ बुनियादी तत्व है 'एवीति' । श्रद्वीत्ति दध्य का चेतन
रूप है, तथ्य का वह रूप है जिसम कलाकार के ब्यक्तित्व का अश समाहित
है। व्यक्ति के चेतत अश और तथ्य के सम्मिलित मन्तुलन का नाम ही
'प्रतीति' है। इस सम्मिलित सन्तुलन म द्वैत नही है । प्रवीति वो एक इकाई है ।
तथ्य की वस्तुपरक सत्ता का ज्ञान और उस ज्ञान की व्यवितगत प्रतिक्षिया
दाना मिनकर जित इकाई की निमिति करते है वही तथ्य कौ प्रतीनि है ।
उदाहरण के लिए वीती विभावय जाग्र री' में प्रसाद जीने ऊपा का
বিশ্ব नहीं किया | यह गीत जो ऊपा की प्रतीति की अभिव्यक्तित करता है,
कवि न ऊपा को एक विशिष्ट रुप में देखा है। ऊपा देसे तो एक तथ्य है ।
एक परिस्थिति है । लेकित कवि मे इस तथ्य ने विशिष्ट प्रतिक्रिया जमायी ।
बह भ्रसिद्विया ऊय्ा तथ्य से सम्मिलित होकर एक विशिष्ट सूपं या प्रतीति को
जत्म देती है। यह प्रतीति 'ऊपा' नहीं बरत् 'ऊपा-नायरी' है जिसके साथ कवि
की अनुभूतियाँ অতুল ই । হ়লিত इस गीत में हम जो विद्यमान दिखायी देता
है वह ऊपर नही, ऊपा की प्रतीति है, ऊपा की वह भावना है जो कवि की
कृति है। इसोनिए यह भाववा या प्रतीति एक अखण्ड, अविभाग्य सत्ता है
और इसीलिए अलकार काव्य का बहिरण तस्््व नही है। अलकार्य और अलकार
का भेद कात्य को अन्त धारणा पर आधारिन है |
काव्य तथा कला मे वणित प्रत्येक्ष तथ्य या परिस्थिति का यथार्थ स्वरूप
एसा ही होता है । वह तथ्य या परिस्थिति न होकर तथ्य या परिस्थिति की
प्रतीति होती है ! यह प्रतीति परिस्थिति और व्यक्तित्व की अखण्ड समृध्टि है,
अंविभाज्य अदूट सत्ता है। इसलिए एक दृष्टि से जिसे परिस्थिति कहा जाता
है, वही दूसरी दृष्टि से व्यक्तित्व है । यही काव्य का स्वभाव है 1
_. काव्य के स्वभाव की दृष्दि से देखते हुए यह स्पष्ट है कि कवि-कर्म मूल
में एक सामाजिक कर्म है। यदि केवल व्यक्तित्व के बिन्दु से चिन्तन आरश्भ
किया जाये तो काब्य कवि की कृति है । प्रथम कृति व्यस्तित्व है। और यह्
एक सामाजिक कृति है यह मनोविज्ञान से सिद्ध ই) इसलिए कान्य एक एसी
इति है सो सामाजिक कृति कौ सजेना है । इसलिए उसमे सामराजिकता सम्कार्
रूप में ही विद्यगान होती है ।
प्रत्येक व्यक्तित्व भ सामाजिकता का तत्त्व होता है। इस सामाजिक्ता के
तत्त्व वे स्वहप में भेद हो सकता है, विरोध भी हो सकता है, लेकिन किसो
भी व्यक्तित्व में सामाजिकता का अभाव नही हो सकता । यदि कोई पभा
कहता है, और भाजकल कुछ कवि और लेखक भी ऐसा कहते है, तो वह काव्य
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