न्याय कुमुद चन्द्र भाग - 2 | Nyaya Kumud Chandra Bhag - 2

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Nyaya Kumud Chandra Bhag - 2  by न्यायचार्य महेन्द्र कुमार - Nyayacharya Mahendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आकेथन 15 ममौश अगर कार्यसाधक है तो सर्वप्रथम श्रध्यापकोंके लिए । जैन हो या जैनेतर, सच्चा जिज्ञासु इसमें से बहुत कुछ पा सकता है। अध्यापकोंकी दृष्टि एक बार साफ हुई, उनका अवलोकन प्रदेश एक बार विस्तृत हुआ, फिर वह छुवास विद्यार्थियोंमें तथा अपढ़ अनुयायियोंमें भी अपन आप फैलने लगती है। इस भावी लाभकी निश्चित आशासे देखा जाय तो मुझको यह कहतनेमें लेश भी संकोच नहीं होता कि संपादकका टिप्पण तथा प्रस्ताबनाविषयक श्रम दाशनिक अध्ययन क्षेत्रमें सांप्रदायिकताकी संकुचित मनोबृत्ति दूर करनेमें बहुत कारगर सिद्ध होगा | भारतवर्षको दर्शनोंकी जन्मस्थलीऔर क्रीडामूमि माना जाता है। यहाँका अपढ़ जन भी ब्रह्मज्ञान, मोक्ष तथा अनेकान्त जैसे शब्दोंकों पद पद पर प्रयुक्त करता है, फिर भी मारतका दर्श- निकर पौरुषशून्य क्यो होगया है? इसका विचार करना जरूरी है। हम देखते हैं कि दशनिक प्रदेशमें कुछ ऐसे दोष दाखिल हो गए हैं जिनकी ओर चिन्तकोंका ध्यान अवश्य जाना चाहिए। पहली बात दरशेनोंके पठन-सम्बन्धी उद्देश्यकी है। जिसे दूसरा कोई क्षेत्र न मिले और बुद्धि- प्रधान आजीविका करनी हो तो बहुधा वह दर्शनोंकी ओर क्ुकता है। मानों दाशनिक अम्थास का उदेश्य या तो प्रधानतया श्राजाविका हो गया है या वादविजय एवं बुद्धिविलास । इसका फल हम सर्वत्र एक ही देखते हैं कि या तो दाशनिक गुलाम बन जाता है या घुखशील | इस तरह जहाँ दशन शाश्रत अमरताकी गाथा तथा अनिवार्य प्रतिक्षण-मृत्युकी गाथा सिखाकर अभयका संकेत करता है वहाँ उसके अम्यासी हम निरे भीरु बन गर हैं। जहाँ दर्शन हमें सत्य-असत्यका विवेक सिखाता है वहाँ हम उलदे अप्तत्यको समभनेमें मी अससर्थ होरहे हैं, तथा अगर उसे समझ भी लिया, तो उप्तका परिहार करनेके विचारसे ही कोपि उठते हैँ । दरीन जहाँ दिन रात आत्मैक्य या आत्मौपम्य सिखाता है वहाँ हम मेद-प्रमेदोको ओर भी विशेषरूपसे पुष्ट करनेमें ही लग जाते हैं । यह सब विपरीत परिणाम देखा जाता है। इसका कारण एक ही है, ओर बह है ददनके अध्ययनके उद्देश्यको ठीक ठीक न समझना । दर्शन पढ़नेका अधिकारी वही हो रुकता है और उसेही पढ़ना चाहिए कि जो सत्य-अस॒त्यके विवेकका सामथ्य ग्राप्त करना चाहता हो और जो सत्यके स्वीकारकी हिम्मतकी अपेक्षा असत्यका परिहार करनेकी हिम्मत या पौरुष सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रमाणमें प्रकट करना चाहता हो | संक्षेपमें दशनके अध्ययनका एक मात्र उद्देश्य है जीवनकी बाहरी और भीतरी शुद्धि | इस उद्देश्यको सामने रखकर ही उस का पठन-पाठन जारी रहे तभी बह मानवताका पोषक बन सकता है। दूसरी बात है दादौनिक प्रदे शमं नये संशोधनोकी । अभी तक यही देखा जाता है कि प्रत्येक संप्रदायमें जो मान्यताएँ और जो कल्पनाएँ रूढ़ हो गई हैं उन्हींको उस संग्रदायमें सर्वज्ञप्रणीत माना जाता है। ओर आवश्यक नये विचार प्रकाशका, उनमें प्रवेश ही नहीं होने पाता । पूर्व पूर्व पुरखोके द्वारा किए गए ओर उत्तराधिकारमे दिए गए चिन्तनों तथा आरणोका प्रवाह ही संप्रदाय है। हर एक संपदायका माननेवाला अपने मन्तव्योके समर्थने एतिहासिक तथा वैज्ञा- निक दृष्टिकी परतिष्ठाका उपयोग तो करना चाहता है, पर इस दिका उपयोग वह वहाँ तक




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