जिंदगी के थपेड़े | Jindagii Ke Thapeze

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Jindagii Ke Thapeze by विष्णु प्रभाकर - Vishnu Prabhakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दफ्तर मेँ ৬ श्रभं। उत दिन कान्त के नथने फड़कने लगे थे और परचा लिखता- लिखता वह थर-थर कांप उठा था, लेकिन थ्राज जैसे उसे हँसी आगई। अपने साथी से बोला “कितनी बेवक़ फ्री की चातें हैं |? साथी गेहुये रंग का लम्बा सा नवयुवक था । वह नया भरती हुआ था। इसी बात पर उसने एक दिन कहा था--मेरा जी कद्दता है उसके বাকী पर अँगूटा रखकर ज़ोर से दत्रा दू ! प्रज भी उसने यही कहा । यह ठीक हे, लेकिन तुम इसके परिणाम के लिये तेयार हो १ परिणाम की मुझे चिन्ता नहीं है। मेरेबदनमेश्राग लगी हुई है छोटे बाबू हमारी तरफ किरानी है। क्या हुआ उसका वेतन कुछ अधिक हे । उसे आदमी को भिड़कने का श्रघिकार नहीं हे । यह सरकारी काम है | वह आगे कुछ कहता कि बड़े बाबू हॉफते-हाँफते वहाँ श्रागये । बोले- “आज की डाक से यह केस जाना है। जल्दी तेयार कर दो ।”? लाल फ़ांते मं बंधे हुये बहुत से कागज़ लेकर निशिकान्त का साथी अपनी सीट पर चला गया। बडे बाबू कान्त से बोले--“तुम ज़रा छोटे बाबू के पास चले जाओ। मुके प्राइवेट लिका की जरूरत है ।?? तच कान्त ने अपने सामने बड़े बड़े रजिध्टरों को समेटते हुये जवाब दिया... “श्र, में वहाँ नहीं जाऊंगा |?” .. “क्यों ९?? “क्योंकि वह आदमी से कुत्त की तरह बोलता है !? “कुत्ते की तरह !?--अ्रचकचा कर बड़े बाबू बोले । “जी हाँ। जन से उसके पेसे बढ़े हैं, वद आदमी को श्रादमी नहीं विष्णु




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