प्राच्य धर्मं और पाश्चात्य विचार | Prachya Dharma Aur Pashchatya Vichar
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
454
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन - Dr. Sarvpalli Radhakrishnan
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संसार की श्रजात श्रात्मा १७
होता है भोर ऐसे भारी साहसिक कार्य करने को अनिच्छुक रहता है जिनके लिए उसे
निरिचन्तता श्रौर श्रतीत के पार्थक्य को तिलाजलि देनी पड़े । वर्तमान पद्धति राष्ट्रीय
श्रहुमन्यता के व्यूह् परभ्राधित है1 उसकी श्रहुमन्यताए नियव्रित होती है पारस्परिक
भय एव भ्रसमजस से, प्रभावहीन सन्धियो एव भ्रन्तर्रष्टरीय न्यायाधिकरणो के निरर्थक
प्रस्तावों से । ऐसी वर्तमान पद्धति का जो नैतिक पतन हौ रहा है, उससे इस सामान्य
मानव-भन का पूर्णत समाधान नहीं हो पा रहा! प्लेटो ने भ्रपनी रिपन्तिकः पुस्तक
में प्रबन किया है. “क्या आप यह् कल्पना करते है कि राजनीतिक सविघानो का उद्-
सव नागरिको की मनोवृत्तियो से, जो हवा के सख को पलट देती हैँ भ्रौर भ्रन्य सभी
कुछ को भ्रपनी श्रोर भ्राकपित कर लेती हैं, व होकर किसी वृक्ष या चट्टान से हुभ्रा
है? * जैसे मनुष्य होते है, वैसे ही संविधान भी बनते हैं। सविधान नागरिको के
चरित्रो से ही उद्भूत होते हैं।”' किसी भी समाज का पुन्निर्माण मनुष्यो के हृदयों धौर
भनों मे परिवर्तन करके ही किया जा सकता है। हम समस्त वस्तुओ को नवीन रूप
देने की चाहे जितनी उत्कट इच्छा रखते हो, किन्तु हमारी जड़ें श्रतीत में इतनी गहरी
गड़ी हैं कि हम उससे छुटकारा नहीं पा सकते । भ्राइए, हम कुछ दूर तक भ्रतीत मे चल-
कर देखें श्रौर उन विचारो का पता लगावें जो हमारे वर्तमान का नियमन करते हैं ।
[२]
मानव-जीवन को श्रपने रंग मे হ্যা देनेवाले श्राधुनिक सम्यता के प्रभावो,
विज्ञान श्रोर युक्तिवाद की चेतना, धर्म निरपेक्ष मानववाद भर प्रभुसत्तात्मक राज्य का
मूल पोराणिक पुरातन युग मे खोजा जा सकता है।
१: : यूनानियो ने यूरोपीय जगत् के निमित्त प्राकृतिक विज्ञान की नीव रखी ।
यूतानियों की यह महत्त्वाकाक्षा थी कि हर बात का विब्लेषण और भ्रन्वेषण किया
जाए विवेक के प्रकाश मे समी वस्तुश्रो का परीक्षण श्रौर पुष्टीकरण हो । जीवन का
কীছ শী সম राज्य के श्रादेशो या धर्मशास्त्रो की शकाझो की श्रधिकार-सीमा के वाहर
नहीं है । सर्वप्रथम यूनानियो ने ही जीवन को विवेकशील बनाने और मानव-जीवन के
सही स्वरूप को समभने की चेष्टा की । उन्होंने ही श्रादिम विध्वासों द्वारा समाज मे
उत्पन्न भ्र राजकता को विवेक श्रौर व्यवस्था के सिद्धान्तो का प्रयोग करके व्यवस्थित
करने का प्रयत्त किया । सुकरात ने हमें भ्रपरीक्षित जीवन के विरुद्ध चेतावनी दी भौर
प्रपने युग की वहुप्रचलित, किन्तु श्रविदले पित मान्यताशो को उसने सावधानी से जाचने-
परखने की चेष्टा की । उस्तकी यह् दृढ आास्या थी कि ठीक काम करना और सीधे चलना
मानव की सहज प्रकृति है। मानव-प्रकृति मूलत भली है झौर ज्ञान के प्रसार से सब
प्रकार की बुराश्यां स्वत दूर हो सकती हैं। पाप तो मनुष्य की फेवल भूलचूक है। हम
भला वनने का भ्रभ्यास कर सकते हैं। पुण्य या भ्रच्छाई की शिक्षा दी जा सकती है ।
प्लेटो का फथन है कि सावेभौम या साधारण विचार व्यमित-विशेष के स्वभाव
का निर्धारण करता है श्रोर वह उसकी अपेक्षा कहीं श्रघिक वास्तविक है । दार्शनिक वह्
१. देखिण रिपस्लिकः का जोवेर एत भ्ये भनुयाद : भाटवा अध्याय, पृष्ठ ४४ ।
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