वचनामृत | Vachanamritam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28 MB
कुल पष्ठ :
814
श्रेणी :
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No Information available about नित्यानंद औपमन्यव- Nityanand Aupmanyav
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)13
सर्वथा उदासीन हो जाय अथवा संन्यास धारण कर ले. रामानुज मत में वैराग्य
को ज्ञान तथा भक्ति का उतना अधिक अन्तरंग साधन नहीं माना गया है जितना
स्वामिनारायण वेदान्त में. लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना भी उचित नहीं है
कि मनुष्य अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियों का दमन करे. भगवान स्वामिनारायण ने
इन्द्रियों तथा चित्त की वृत्तियों को परमात्माभिमुखी बनाने के अभ्यास पर बल
दिया है, जिससे मनुष्य के हृदय और मन में पूर्णतया भगवद्भावना का उदय हो
जाता है और इसके फलस्वरूप सारा संसार परमात्मा की विभूति के रूप में ही
भक्त को प्रतीत होने लगता है.
श्रीरामानुज की तरह भगवान स्वामिनारायण ने कर्मयोग को चित्तशुद्धि का
साधन माना है. ज्ञान-प्रप्ति के पूर्व तथा पश्चात् दोनों हौ स्थितियो मे कर्मयोग
अनुष्ठेय है, जिससे आत्मज्ञान होता है ओर आत्मज्ञान के पश्चात् ही भगवान का
ज्ञान होता है तथा भगवान मे अनन्य भक्ति की भावना की उत्यत्ति होती है.
परन्तु, आत्मज्ञान या आत्मनिष्ठा अपने आप मे पर्याप्त नहीं है. भगवत्प्राप्ति के
लिये आत्मज्ञान अनिवार्य है ओर इसलिये आत्मज्ञान कौ सार्थकता की परिणति
भगवत्प्राप्ति में ही होती है. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आत्मज्ञान अथवा
आत्मनिष्ठा को भगवत्पराप्ति के बिना परम पुरुषार्थं नही माना जा सकता.
श्रीमदभागवत मे भी यह बतलाया गया है कि भगवद्भक्ति के अभाव मे मात्र
आत्मनिष्ठा शुष्क ओर नीरस ही है.
'यैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जिंतं न शोभते ज्ञानमलं शनिरञूजनम् ।'
इसलिये मानवमात्र को परमात्मा को विभूति समक्षकरं ठसकी सेवा करना
भक्त का परम कर्तव्य है. भगवत्सेवा से ही मानवसेबा की प्रवृत्ति को प्रेरणा
मितौ है. श्रीमद्भागवत मे आत्मलाभ अथवा मुवित्त को परम पुरुषार्थ नहीं মানা
गया है. भगवान स्वामिनारायण ने भी सेवावृत्ति को ही आत्मलाभ या मुक्ति की
अपेक्षा अधिक महत्वपूर्णं बतलाया है.
किसी भी धर्म मे श्रेष्ठता का मानदंड उसके अनुयायि्यो का आचरण है.
श्रीस्वामिनारायण सम्प्रदाय के अनुयायी न केवल अपने जीवन मे तप, स्वाध्याय,
संयम आदि सद्गुणो के सतत आचरण का ज्वलन्त दृष्टान्त प्रस्तुत करते हँ
बल्कि वे इन आदर्शो के आधार पर एक नवीन मानव समाजं के निर्माण के
लिये प्रयत्नशील है. सर मोनियर विकछियम्स ने भगवान स्वामिनारायण की
१. भाग.प्र.अ. ५ श्लो. १२ ओर लो. ७.
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