धनआनंद और आनंदधन | Dhananand Aur Ananddhan

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Dhananand Aur Ananddhan by विश्वनाथ प्रसाद - Vishvnath Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ 2 ज भाषागत श्रव्ृत्ति पर आइए | “'घनआ। नंद या ब्रजनाथ के “घनजू” है ब्रजभाषा-प्रवीन' और “भाषा प्रवोन' दोनो थे । सुंदरता के সীল” “লালা भेद का स्वरूपः-चित्रण करने में दत्त थे । सखद भी थे । जग की कविता के धोखे मे” रहने से इन ङी रचन! हृदयंगम नदीं हो सकती । उसके लिए मानस-नेन्र अपेक्षित हैं। “घनश्रानंद' के नाम पर संकलित रचना मे* तो ये सब वेशिष्व्य अवश्य मिलते हैँ पर चानं हवनः के भाम परं विमत कृति मे नहीं। “भाषा की अवीणता” तो उन्होंने नागरीदास आदि की भाँति अनेक प्रकार की भाषाओं मे” रचना करके प्रदर्शित की है | अब विचार कीजिए कि , क्या धनआनंद' जिनके कवित्त-स्वेयाँ की | जबाँदानी को हिंदी का कोई कवि नहीं पाता वे ही 'पदावली? आदि के भी | रचयिता हैं। यदि 'पदावली” उन्हीं की हो तो इसे उन्होंने भक्त होने पर वुद्धावस्था मे ही लिखा होगा, पर 'पदावली” का बंधान चुस्त नहीं है। कुछ ही रचनाएँ बढ़िया हैं । सिद्धांत और अनुभूत स्थिति यह है कि ज्याँ ज्यौ समय बीतता जाता दे कवि को वृत्ति मे” श्रौद़ता, प्रांचलता आदि का समा- बेश अधिकाधिक होता जाता है यहाँ बात उलट गई है। थदि पदावली आदि रचनाएँ आरंभिक होती तो संगति अवश्य बैठ जाती । क्या भक्त हो जाने पर काव्यत्व का द्वास हो जाता है, क्या पद्‌ मे हृ रचना साधारण ही रहती ह ` क्या लीज़ा के पद गाने के होते हैं. इससे उनमे” भाषा की प्रवीणता नहीं आ पाती | पर घनआनंद' की कवित्त-सवेयावाली भक्तिपूर्ण रचनाएँ ऐसी ` नौ है। क्ृपाकंद-निबंध का पद भी ऐसा नहीं है, उसमे” विरोध-विशिष्ट प्रवृत्ति पूर्ण रूप मे मिलती हे यदि घनआनंद ही पदौ मे आनंदघन हो गए तो डस सुजान शब्द्‌ के प्रयोग कौ न्यूनता कयौ है जिसे भक्ति-पक्त मे” | “श्यामः या श्यामा के लिश वे कवित्त-षवै्यौ मे बराबर रखते आए | रहा संम्रदाय | सो कृष्णगढ़ के महाराज सावंतर्सिहजी हुए “नागरीदासः, . “ उन्होंने दीक्षा ली वल्‍्लस-कुल मे” पर उनकी कृतियाँ सखी-संप्रदाय के भक्तों के मेल में पूरी पूरी हैं। यदि पता न हो कि वे वव्लभ-कुल के हैँ तो कोई उन्हें उस संप्रदाय का कदापि नही मान सकता । “मिश्रबंधु-विनोद' मेँ वे 'वस्लभीय संप्रदायः के कहे ही गए ह. व्ल भ-ङल के नहीं ( द्वितीय संस्करण, द्वितीय পি




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