शकुन्तला नाटक | Shakuntla Natak

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Shakuntla Natak by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पढ़ता श्‌ 2 मेकथ्य में संखियों यहां आओ यहीं आओ उप्यन्त कान लगाकर दस फलवाड़ा के दक्खिन ओर ना सआत्ताप सा देता हद | मैं भी- पह्ीं चणू | चारों डोर फिर्कर दौर ढसकर अदा ये ता तपर्वियों की हद जो ऋय के अनुसार काई छोटी कोई न टी गगरी लिए पौधे सींचने का आती हैं । घन्थ है कैसा सनोदर इनका है दाह या झा की तिथयन को जसो बात द्नप । थे मित्ननी पसों कठिन हूं रनवासन मे रूप ॥ ऐसे ही वन की लता अपने श्रणप नित उद्यान लतान देति प्याज 1 १७॥ अच इस बक्त की छाया ये खड़ा हूँगा 177 खड़ा होकर देखता है। दो ससियों के ताथ शकुन्तला घडा लिये आती है | शकुन्तला चहाँ आओ आओ से हद शकुन्तला मे जानती दूं पप्ता करत का साथ के निरुले तुक से झधिक प्यारे होगे नहीं ता तुम नई चसेली सी कोमलाज्ञी का इनके सींचने की आजा क्यो दे जाये | शकुन्तपा। दे अनयूथा निरी पिता की अन्ना ही नही मेरा भी इन ब्रुक्षो में सहोदर का सा हो या है । पेड को पानी देती है ्राष दी आपो यह कप की बेटी शकुन्तला क्यों १७ जैसे आश्रम के का छुन्दर रूप रनवास को में मिलना कडिन है ऐसे ही वन की लता श्रपने शुनोंसे उद्यान बाग की लताओं को लग्जित करती है ।




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