अतिमुक्त | Atimukti

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राज कुमारी बेगानी - Raj Kumari Begani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अन्त में माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर अतिमुक्त गुरु के पाम चला गया । दिन पर दिन वीतते गए । एक दिन अतिमुक्त अन्य श्रमणो के साथ भिक्षा के लिए नगर की ओर जा रहा था | वर्षा ऋतु थी | कुछ অময দূল ही मूमलाधार वर्षा हो चुकी थी। ज्वार के खेत के बगल से निकलने वाले नाले में पानी वह रहा था। और एक ध्वनि आ रही थी कल-कल कल-कल | ध्वनि कान में पड़ते ही अतिमुक्त सहसा खड़ा हो गया | ह लहरों की ध्वनि सुनकर उसे अपने बचपन की एक वात याद आ गई | उस दिन भी ऐसे ही नाला उमड रहा था एवं ऐसी ही कल-कल ध्वनि आ रही थी । बह उस पानी में कागज की नाव तेरा रहा था और चम्पा भी अपनी नाव तेरा रही थी । उसकी नाव तो तिर गयी किन्तु चम्पा की नावन जाने क्‍यों पानी के बहाव में उलट गयी | किन्तु कितनी दुष्ट थी चम्पा ! कह रहो थी कि अतिसुक्त की नाव डूब गयी है, उसकी नहीं। अतिमुक्त ने उसे एक थप्पड़ मारते हुए कहा था, यह झूठ है । झूठ ही तो था ! अतिमुक्त संभवतः अपने को भूल बठा | वह धीरे-धीरे नाले की ओर बढ़ा | लकड़ी का भिक्षापात्र पानी में तेरा कर वह देखता रहा और बड़बढ़ाता रहा, यह झूठ है । वह देखो मेरी ही नाव तेर रही है । भ्रमणगण अतिमुक्त की यह दशा देखकर आश्चय-चकित हो उठ । अतिमुक्त ४




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