चौबीस तीर्थकर | Chouvish Tirthakar

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Chouvish Tirthakar  by बलभद्र जैन - Balbadra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२. भगवान अजितनाथ ` एवं भव- तीर्थंकर नामकर्म सातिशय पुण्य प्रकृति है। यह प्रकृति उसी महा- भाग के बंधती है, जिसने किसी पूर्व जन्म में दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन किया हो, तदनुकुल अपना जीवन- व्यवहार बनाया हो और जिसके मन मे सदाकाल यह्‌ भावना जाग्रत रहती हो--'संसार में दुःख ही दुख है। प्रत्येक प्राणी यहां दुःखों से व्याकुल है । मैं इन प्राणियों का दुःख किस प्रकार दूर करू, जिससे ये सुखी हो सके ।/ सम्पूणं प्राणियों के सुख की निरन्तर कामना करने वालि महामना मानव को तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है अर्थात्‌ आगामी काल में वह तीर्थंकर बनता है । द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ ने भी पहने एक जन्म मे इसी प्रकार की भावना की थी | उसकी कथा इस प्रकार है :--- वत्स देश में सुसीमा नाम की एक नगरी थी। वहां का नरेश विमलवाहन बड़ा तेजस्वी ओर गुणवान धा । उसमे उत्साह शक्ति, मंत्रशक्ति ओर फलशक्ति थौ । वह उत्साह सिद्धि, मत्रसिद्धि से युक्त था। वह पुत्र के समान अपनी प्रजा का पालन करता था। उसके पास भोगों के सभी साधन थे, किन्तु उसका मन कभी भोगों में आसक्त नहीं होता था। वह सदा जीवन को वास्तविकता के बारे में विचार किया करता--जिस जीवन के प्रति हमारी इतनी आसक्ति है, इतना अहंकार है, वह्‌ सीमित है। क्षण- प्रतिक्षण वह्‌ छौज रहा है ओर एक दिन वहू समाप्त हो जायगा । इसलिये भोगों मेँ इसका व्यय न करके आत्मकल्याण के लिये इसका उपयोग करना चाहिए । यह विचार कर उसने एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट करना उचित नहीं समझा और अपने पुत्र को राज्य-शासन सौंपफर अनेक राजाओं के साथ उसने देगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। उसने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया, दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर जिन्तवन किया । फलतः उसे तीर्थकर प्रकृति का ब््धहो गमा। भावुके अन्त में पंच परमेष्ठियों में मन स्थिर कर समाधिमरण कर बह विजय




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