मुहावरा - मीमांशा | Muhabara- Mimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २ द्रन्न-ह्प में प्रचारित, श्रथवा प्रचलित मनोविशान-शास्त्र' का अमूल्य और अक्षय रत्नाकर ही समफना चाहिए | स्वर्गीय सी० एफ्‌० एणड्रज ने एक जगह कहा है--किसी भाषा को सीखने से पहिले उसके मुहावरों का अध्ययन करना आवश्यक है ।” उनका यह कथन उनकी अपनी अनुभूतियो का ब्योरा-मात्र है, वास्तव में मुहावरे ही भाषा के स्तम्भ होते हैं। थे, उनका प्रयोग करनेवाले अपद्‌ देहातियों से ही नही, वरन्‌ उच्च कोटि के शिष्ट पंडितों से भी अधिक गम्भीर होते हैं। उनमें जहाँ एक ओर बिजली की तरह किसी तथ्य को सर्वत्र फेलाने की सामथ्यं होती है, वहां दूसरी ओर प्राचीन शञान और विशान के स्मारक-चिह्बों को सुरक्षित ओर सजीव रखने की भी झपूर्व क्षमता होती है। उनमें कभी-कभी युग-युगान्तरों के ऐसे सत्य छिपे हुए मि्रते है, जो उस समय के लोगों के लिए तो दीवार पर लिखी हुई बात-जेसे स्पष्ट थे, किन्तु आज समय की तीव्र गति के साथ हमारी आँखों से ओमल्ल होकर विस्म्गति के गत्त में ऐसे विल्लीन हो गये हैं कि हम उनकी कल्पना भी नहीं कर सकते। सारनाथ, हृड़प्पा ओर मोहेनजोदड़ो के भूमिसात्‌ खंडहरों को देखकर कौन कह सकता था किः उनके विज्ञाल गभं में पुरातन भारतीय सभ्यता रौर संस्कृति के एसे स्वयंसिद्ध सत्य छिपे इए है, जो एक दिन मेक्समूलर-जेसे प्रकांड पंडित के, वेदो को अधिक-से-अधिक १२००, १००० ३० पू° अर्थात्‌ लगभग ३००० वर्ष प्राचीन सिद्ध करने- वाले श्रति खोजपूर्ण कथन की कमर तोड़ देँगे। इसी प्रकार भाषा के ज्षेत्र में फेले हुए असंख्य सारनाथ, हड़प्पा ओर मोहेनजोदड़ो की जिप्त दिन खुदाई होगी, कौन कह सकता है कि उस दिन ऐसे ही कितने और सिद्ध साधकों को विवश होकर अपने ही हाथों अपनी सिद्धियों की गद्न न तोड़नी पड़ेगी। उस दिन के आने में अब देर नहीं है, देर है तो केवल 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैऽ क इस स्वणा-सिद्धान्त को अपने जीवन से सिद्ध करने की । यदि उनके (मुहावरों के) अस्तित्व की ओर ध्यान देकर कोई सचमुच काय-कारणानुसंधायक बुद्धि से उनका अध्ययन करे, तो इसमें सन्देह नहीं कि कितनी ही अति महष्त्वपूण रहस्य की बातें संसार के लिए 'हस्तामलकवत'” स्पष्ट हो जार्य किसी भी शब्द्‌ पर, उसकी ध्वनि श्रथवा उसके अ्रथ और समय-समय पर उसमें होते रहनेवाले परिवत्तन, मोटे रूप में इन दो दृष्टियों से ही हम विचार करते हैं । ध्वनि और ध्वनि-विकार की दृष्ट से अवश्य इस दिशा में कुछ काम इश्रा है; किन्तु अथं और उसमें होनेवाले परिवत्त नों के आधार पर तो अभी इस क्षेत्र में किसीने कलम ही नहीं उठाई है, उठा भी नहीं सकते थे; क्योंकि अव्वल तो इसमें आवश्यक उपादानों (0०६9) का अभी तक कोई समुच्चित संग्रह ही उपलब्ध नहीं है; दूसरे, जो कुछ इधर-उधर बिखरी इद चीजं मिलती भी है, वे इतनी संदिग्ध श्रोर श्रप्रमाणित हैँ किं उनके सहारे छोडी इई नेया काँ इव जायगी, नहीं कष सकते। मैं इसलिए प्रस्तुत विषय को अपनी ओर से काफी दिल्लचस्य ओर सवंसाधारण के लिए তি सुगम ओर बोधगम्य बनाकर आपलोगों से सानुरोध अपील करूगा कि श्राप अपने नित्यप्रति के जीवन में जिन शब्दों और मुहावरों का या तो रवय॑ प्रयोग करते हैं, अथवा दूसरों को प्रयोग करते हुए सुनते हैं, उन सबका अच्छी तरह से अध्ययन करे, भले ही वे उच्च कोटि के आध्यात्मिक तत्त्वों से सम्बन्धित हों, या बाजार, हार, दूकान, खेल्न-तमाशों, खेती-वारी इत्यादि के अति साधारण व्यापारों में काम आते हों। जो लोग अपनी जाति, समाज ओर राष्ट्र को समुन्नत देखना चाहते हैं अथवा जिनमें अपने देशवासियों को शिक्षित, स्वतंत्र अर स्वदेशाभिमनी बनाने कौ थोड़ी-बहुत भी श्रन्तः्रेरणा बाकी है, उसका यह प्रथम कत्त व्य है कि उनकी अपनी भाषा में जो शान और विज्ञान के श्रक्षय भारडार छिपे हुए पड़े हैं, उन्हें प्रकाश मे लये; साथ ही समय की गति क अनुसार दूसरी चीज़ों को तरह हो भाषा में भी जो अष्टता ओर गनन्‍्दुगी भर गई है, उसे निकालकर भाषा को फिरसे




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