सत्यम्राट आचार कांड | Satymrit Achar Kand

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Satymrit Achar Kand  by दरबारीलाल सत्यभक्त - Darbarilal Satyabhakt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भगवती अहिंसा [ २१८ अनुसार शक्तिभर प्रयत्न करे, निरंछ रहे । भावना काधम या सदाचारके साथ जो इतना सम्बन्ध है इस के चार कारण हैं--- १- हमारी जैसी भावना होती है वैसा ही हमसे प्रयत्न होता है जैसा प्रयत्न होता दे वैसा काथ होता है यह साधारण नियम है। इसके अपवाद बहुत कम होते हैं इसलिये सदाचार में भावना की मुख्यता है । २-मनुष्य अच्छे काम के लिये अच्छी भावना की ही जिम्मेदारी ले सकता हे न कि अच्छे फल की, डाक्टर इमानदारी से काम करने की ही जिम्मेदारी ले सकता है। बह रोगी को बचा ही लेगा यह नहीं का जा सकता । अच्छी भावना पूर्वक प्रयत्न करने पर भी अगर कोई मर जाय और इस कारण डाक्टर को खूनी कहा जाय तो कोई भी डाक्टर इलाज करने को तैयार न होगा। ३-भावना के साथ सुख दुःख का खास सम्बन्ध है । चोरी करते समय जो भय उद्देग आदि पैदा होते €ं वे चोरी की भावना पर ही निभर हैं | भूल से अगर हम किसी की चीज उठालें तो हमें चोर के समान मानसिक छेंश का अनुभव न करना पडेगा | ४ -हमारी भावना का दूसरेके दिल पर अधिक प्रभाव पड़ता है । एक बालक को प्रेम्पृवंक जोर से थपथपनि पर भी प्रसन्नता होती है किन्तु करोध- पैक उंगली का ত্যহী भी सहन नहीं होता । कैसा भी काय हो परन्तु उसके मूर मे जो भावना होती है उसासे हमें और दूसरों को प्रसन्नता मिलती है । इससे माद्ूम हो।त। है कि सदाचार और उस के फल विश्वकल्याण के साथ मनकी হাজি का सब से अधिक सम्बन्ध है | मनकी शुद्धि होने पर ~~ ~= =^ = ~~~ --- --- ~ ५ अर्थात्‌ फलाफलविषेक और वीतरागता होने पर हर एक ग्रद्मत्ति सदाचार का अंग बन' सकती: है । उदारपद प्रक्ष-एक आदमी अपने कुदुम्त्रियों के पालन पोषण के लिये झूंठ बोलता है दंभ करता है चोरी करता है और अनेक पाप करता है पर खद बहुत सादगी से रता है यषां तक कि मुनि या सन्यासी तक बन जाता है इसलिये उसे निःस्त्राथ तो कहना ही पड़ेगा क्योंकि वह अपने लिये कुछ नहीं करता और फलाफलविबेकी भी उसे मानना पड़ेगा क्योंकि उससे कुटुम्बियों के दुःख दूर होते हैं इस प्रकार आपकी दृष्टि से यह निर्दोष प्रवृत्ति कहलाई परन्तु इस निर्दोष प्रवृत्ति में दुनिया भर के पाप समा सकते हैं, दंभ चोरी आदि करते हुए भी अगर निर्दोष प्रवृत्ति कही जा सकती है तब सदोष प्रवृत्ति किसे कहेंगे । सच तो यह हैं कि प्रवृत्ति को निर्दोष कहना ही व्यथ है । उच्तर-कुटुम्बके लिये पाप करने वाला न तो निःस्वाथ है न फलाफलविवेक्री । अपने साथ के लिये जो उपयोगी हैं उनकी भलाई बुराई भी अपनी भलाई बुराह है । अथवा मोह या अभि- मानवरश जिन्हें हम अपना समझने छगते हैं उन की भलाई बुराई भी अपनी भलाई बुराई है । इसलिये स्वार्थ का क्षेत्र अपनी मलाई बुराई तक सीमित नदीं है । घर कुटुम्ब जाति राष्ट्‌ आदि भी स्वाथ की सीमा में समा जति हैं। हां, यह अवश्य है के जिसकी सीमा जितनी 'वैरताण हे वह उतना ही उदारं या महान है। इस उदा- रता की दृष्टि से प्राणियों की सात श्रेणियाँ होती दै जिन्हे उदारपद कहते हैं-१ परमार्था




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