सकडालपुत्र श्रावक | Sakdalputra Srawak

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Sakdalputra Srawak by मुन्नालाल शास्त्री - Munnalal Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९ सकडालपुत्नश्रावक दूसरा-अविश्वासरूप-संशय, आत्मा का पतन कर देता दै। ऐसे संशय के लिये कहा है-- संशयात्मा त्रिनश्यापि “হা বী, জাংলা का विनाद्च हौ जाता है 1“ प्रमाद्‌ में, इसी संशय की गणना है और इसो संशय से कमे- बन्ध होता है । धरम की किसी बात के विषय में, संशय करना ओर उस संशय को नहीं मिटाना-हृदय में रहने देना-धमै पर अविश्वास उत्पन्न करता है ओर घमे पर अविश्वास होना, कमे- बन्ध का दहैतु है । सकडालपुत्र ने, गौशालक फे मत के विषय मे, सन्देह कर करके सब शंकाएँ निवारण कर ली थीं, तथा उस मत को शुद्ध रूप से शअपने हृदय में स्थान दिया था | वह, आजीविक सत को ही धमं अर्थे एवम्‌ परमाथ थानता था, शेष सवको अनर्थं कहता था) फिसो विपय में संशय तभी दो सकता है, जब, उस विषय का मनन किया जवि 1 उस विषय पर विचार किए विना-उसको जाने विना-शंका हो तो किस पर और केसे ? उदाहरण के लिये, एक मूर्ख आदमी के द्वाथ में पुस्तक देकर उससे पूछा जावे कि इस पुस्तक फे विषय में क्या सन्देह हे ? तो इस प्रश्न के उत्तर में वह अधिक-से-अधिक यही कह सकता है, कि-मुमे




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