गृहस्थ धर्म [भाग-1] | Grihasth Dharm [Bhag-1]
श्रेणी : अन्य / Others
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
316
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[७] सम्यक्त्व
आराधना नही कर सकता। जब सिध्यात्य का कारण मिट जायगा
ओर कारण मिटने से भिध्यात्व सिट जायगा तभी दर्शन की
आराधना भी हो सकेगी | मिथ्यात्व सिटाकर दर्शन की उत्कृष्ट
आराधना करता अपने ही हाथ की वात है | अनन्तानुवन्धी क्रोव,
मान, माथा और लोम न रहने से सिध्यात्व भी नहीं रहेगा और
जब सिध्यात्व नहीं रहेगा तो दर्शन की आराधना भी हो सकेगी।
अनन्तानुबन्धी क्रोधादि को दूर करना भी अपने ही हाथ की वात
है। মান को दूर करने से मिभ्यात्व दूर होता है और दरशन की
आराधना होदी है। विशुद्ध दर्शन की आराधना करने वाले को कोई
धर्मश्रद्धा से विंचलित नहीं कर सकेगा, इतना ही नहीं किन्तु जैसे
अग्नि में घी की आहुति देने से अग्नि अधिक तीत्र चनती है उसी
प्रकार धर्मश्रद्धा स विचलित करने का ज्यों-ज्यों प्रयत्त किया जायगा
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स्थों-त्यों धर्मश्रद्धा अधिक दृढ और तेजपूणं क्षती जायगी । घर्सश्रद्धा
में किस प्रकार दृढ रहना चाहिये, इस घिषय में कामदेब श्रावक का
उदाहरण दिया गया है। धर्म पर दृढ श्रद्धा रखने से और दशंन शी
विशुद्ध आगधना करने से आत्मा उसी भव सें सिद्ध, चुद्ध और मुक्त
हो जाता है।
२--सम्यद्त्व का स्वरूप
ससार में सभी जन सम्यम्दष्टि रहता चाहते हैं। सिथ्या-हृष्टि
योद नदी रहना चा््ता । छिसी को मिथ्यादृष्टि कष्टा जाय तो उने
बुरा भी लगता है । इससे सिद्ध है कि सभी लोग 'सस्यम्टष्टि रहना
चाद्ते हैं और वास्तव में यह चाहना उचित भी है । मगर पहले यह
“समझ लेता चाहिए कि सस्यकत्त का अर्थ क्या है “सम्यक्! का
एक अथ प्रशसा रूप है और दूसरा अथे अजिपरीतता शोता है
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