भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ | Bharat Ke Digambar Jain Tirth

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Bharat Ke Digambar Jain Tirth by बलभद्र जैन - Balbadra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रक्‌ ११५ स्वॉपरांका भाशय भी यही है। इसलिए इतिहासातीत कालसे जैन मूर्तियाँ पायी जाती हैं. और जैन मूत्तियोंके निभ भौर उनकी पुजाके उस्केखते तो सम्पूर्ण जैन साहित्य भरा पड़ा है। जैन धरे मूर्तियोंके दो प्रकार बलये गये हैं-कृत्रिम और अकृत्रिम। कृत्रिम प्रतिसाब्रोंसे अकृत्रिम प्रतिमाओोकी संख्या असंसुय ঘুগী बलायी हैं। जिस अकार प्रतिमाएँ कृत्रिम और क्षकृत्रिम बतलाम्ी हैं, उसी प्रकार भैत्यालय भी दो प्रकारके होते हैँ---क्रिम और अकृत्रिम । ये चैत्याऊय नन्‍्दीश्वर द्वीप, सुमेर, कुलाबऊ, वेताक्षय पर्वत, शास्मरी वृक, जम्बू वृक, बक्षार गिरि, चैत्य वृक्ष, रतिकर गिरि, रुचकगिरि, कुण्डरगिरि, मानुषोत्तर पर्वत, हष्वाकारगिरि, भंजनगिरि, दधिमुख पर्व॑त, व्यन्तरकोक, स्वर्गलोक, उथोतिरछोक भौर भवनधासियोके पातारकोकमें पाये लाते है । इनकी कुर संशया ८५६९७४८१ बतलायी गयी है। इन अक्ृत्रिम चैत्यालयोर्मे अक्ृत्रिम प्रतिमाएँ बिराजमान हैं। सौधमेंन्द्रने युगके आदियें अयोध्यामें पाँच मम्दिर बनाये और उनमें अक्ृत्रिम प्रतिमाएँ बिराजमान की । कृत्रिम प्रतिमाओका जहाँ तक सम्बन्ध है, सर्वप्रयम भरत क्षेत्रके प्रथम चक्रवर्ती भरतने अयोध्या জী कैलासमे मन्दिर बनवाकर उनमें स्वर्ण और रत्नोंकी मूर्तियाँ विराजमान करायी । इसके अतिरिक्त जहाँ पर बाहुबली स्वरामीने एक वर्ष तक अचल प्रतिमायोग धारण किया था, उस स्थानपर उन्हींके आकारकी अर्थात्‌ पाँच सो पचरीस धनुषकी प्रतिमा निर्मित करायी। ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि दूसरे तोथकर अजितनाथके कालमें सगर चक्रवर्तीके पुत्रोंने तथा तीसवे तीर्थंकर मुनिसुक्रतनाथके तीर्थ्में भुनिराज बाली और प्रतिनारावण राबणने कैलास पर्वत पर इन बहत्तर जिताहपोंके तथा रामचन्द्र और सीताने बाहुबछी स्वामीकी उक्त प्रतिमाके दर्शन और पूजा की थी । पुरातात्विक दृष्टिसे जैन मूर्ति-कलाका इतिहास सिन्धु सम्यता तक पहुँचता है। सिन्धु घाटीकी खुदाईमें मोहन-जो-दडो और हड्प्पासे जो मूर्तियाँ प्रास हुई है, उसमे मस्तकहीन त्न मूति लथा सील पर अकित ऋषभ जिनकी मूर्ति जैत घर्मसे सम्बन्ध रखती है। अनेक पुरातत्त्ववेत्ताओंने यहू स्वीकार कर लिया है किं कायोत्सरगासनमे आसीन योगौ-परतिमा आद्य जैन तीयंकर ऋषभदेवकी प्रतिमा है। भारतमें उपलब्ध जैन मू्ततियोमें सम्भवत. सबसे प्राचीन जैन मूति तेरापुरके छयणोमें स्थित पा्वनाच- को प्रतिमाएँ हैं। इनका निर्माण पौराणिक आशख्यानोंके अनुसार कलिंगनरेश करकण्डने कराया ঘা, জী ঘাহন্বলাঘ मौर महावीरके अन्तरालमे हुआ था । यह काल ईसा पुवं सातवी छतान्दी होता है । इसके बादकी मौ्कारीन एक मस्तकृहीन जिनमूति पटनाके एक मुहस्ते लोहानीपुरसे मिली है । वहाँ एक जैन मन्दि की नीव भी मिली है। मूर्ति पटना सप्रहालयमें सुरक्षित है। वैसे इस मृतिका हड़प्पासे সাম লন্নমৃতিক্, साथ अद्भुत साम्य है। ईसा पूर्व पहुली दूसरी बलाब्दीके कलिगनरेश खारबेल के: हाथी-गुंफा शिलालेख से प्रमाणित है कि कलिममें सबंत्रान्य एक 'कलिग-जित की प्रतिमा थी, जिसे तन्‍्दराज ( महापब्यनन्द ) ई. पूर्व, चौथी-पाँचवी शताब्दी कॉलिगपर आक्रमण कर अपने साथ যাস ले गया था। और फिर जिसे खारवेल मगधपर आक्रमण करके वापिस कलिंग ले आया था । इसके पश्चात्‌ कुषाण काल ( ई. पू. प्रथम दालाब्दी तथा ईसाकी प्रथम बाताबदी ) की और इसके बादकी तो अनेक सूर्तियाँ सथुरा, देवगढ, पभोसा भादि स्थानोपर मिरी £ । तीर्थ और भूतियोंपर समयका प्रभाव भे भूर्तियाँ केवल तीर्थ क्षेत्रोपर ही नही मिरूतीं, भगरोंमें मरी मिलती हैं। तीर्च क्षेत्रोपर तीभंकरोंके कह्याणक स्थलों और सामान्य केवक्षियोंके केशलशान और तिर्भागस्थान्तेंपर प्राचीन कासमें, ऐसा लगता हूँ, उनकी मूतियां विशजमात नही होती थीं । त॑,भंकरों के निर्वाण स्थानको सौधमेंस्द्र अपने गश्दप्डले ০)




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