योग - समन्वय भाग - 3 | Yog - Samanvay Bhag - 3

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Yog - Samanvay Bhag - 3 by श्री अरविन्द - Shri Aravind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका 13 उदाहरण देखनेमे नहीं अते । वस्तुतः जव मनुष्य अपनी दृष्टि और शक्ति अंतरकी ओर मोड़ता है तथा योग-मार्ममें प्रवेश करता है तो ऐसा माना जाता है कि वह हमारे सामूहिक जीवनके महान्‌ प्रवाह और मनुष्य- जातिके लौकिक प्रयत्नके लिये अनिवार्य रूपसे निकम्मा हो गया है। यह विचार इतने प्रवल रूपमें फेल गया है और इसपर प्रचलित दर्शनों और धर्मोने इतना बल दिया है कि जीवनसे भागना आजकल केवर योगकी आवश्यक शतं ही नहीं, वरन्‌ उसका सामान्य उद्देश्य भी माना जाता है। योगका एेसा कोई भी समन्वय संतोषप्रद नहीं हो सकता जो अपने लक्ष्यमें भगवान्‌ ओर प्रकृतिको एक मुक्त ओर पूणे मानवीय जीवने पुनः संयुक्त नहीं कर देता याजो अपनी पद्धतिमें हमारे आंतरिक और बाह्य कर्मों और * अनुभवोंमें समन्वय स्थापित करनेकी अनुमति ही नहीं देता, बल्कि उसका समर्थन भी नहीं करता; इस कार्येमें दोनों अपनी चरम दिव्यताको प्राप्त कर लेते हैं। कारण, मनुष्य एक उच्चतर जीवनका उपयुक्त स्तर एवं प्रतीक है, वह एक ऐसे स्थूछ जगत्‌में अवतरित हुआ है जिसमें निम्न तत््वका रूपांतरित होना, उच्चतर तत्त्वके स्वभावकों प्रहण करना और उच्चतर तत्त्वका निम्न तत्त्वमें अपने-आपको अभिव्यक्त करना संभव है। एक ऐसे जीवनसे बचना जो उसे इसी संभावनाको चरितार्थ करनेके लिये दिया गया है कभी भी उसके सर्वोच्च प्रयत्नकी अनिवार्य शर्त या उसका समस्त और अंतिम उद्देश्य नहीं हो सकता, न ही यह उसकी आत्म-उप- लब्धिके अत्यधिक सबल साधनकी शर्ते या लक्ष्य हो सकता है। यह किन्‍्हीं विशेष अवस्थाओंमें एक अस्थायी आवश्यकता तो हो सकता है या यह एक एसा विशिष्ट अंतिम प्रयत्न भी हौ सक्ता है जो व्यक्तिपर इसलिये लादा जाता है कि वह पूरी जातिके लिये एक महत्तर सामान्य संभावनाको तैयार कर सके। योगका सच्चा और पूर्ण उपयोग और उद्देश्य तभी साधित हो सकते हैं जब कि मनुष्यके अंदर सचेतन योग, जैसा कि प्रकृतिमें अवचेतन योग होता है, बाह्यतः जीवनके साथ समान रूपसे व्यापक हो जाय। और तभी हम मार्ग और उपलरूब्धि दोनोंको देखते हुए एक बार फिर एक अधिक पूर्ण और आलोकित अर्थमें कह सकते हैं : “समस्त जीवन ही योग ই”




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