विवेक | Vivek

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शैल नाथ चतुर्वेदी - Shail Nath Chaturvedi

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हरिनारायण - Harinarayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जालि व्यवस्था पर आक्रमण आचाये ल्षितिमोहन सेन जब वर्णाश्रम धर्म प्रव॒तित हुआ तो उसके साथ एक बहुत ऊँचा आदर्श भी लोक नेताओं के सामने जरूर रहा होगा । यही कारण है कि उन्होंने ब्राह्मण का स्थान जितना ऊंचा रखा उतना ही उसकी जवाबदेही भी अपरिसीम रख दी । यदि सभी लोग ब्राह्मण को पूज्य मारने तो तपस्वी ब्राह्मण भी सरल अनाडम्बर जीवन के साथ गम्भीर ज्ञान उच्च आदर्श और कठोर तपस्या के समन्वय से समाज को थोड़े से ही व्यय से अग्रसर कर सके । निश्चय ही यह बहुत बड़ा आदर्श है। यही कारण है कि उन दिनों आदर्श रक्षा का अर्थ ही होता था ब्राह्मण-रक्षा | यही कारण है कि उन दिनों समाज की स्थिति के लिये ब्राह्मण-रक्षा की इतनी व्याकुलता प्राचीन ग्रन्थों में दिख जातो है । क्रिस्तु यदि आदर्श के साथ ब्राह्मण का नित्य योग न हो, तो ब्राह्मण-रक्षा का कोई अर्थ हो नहीं होता । फिर तो इतिहास के ही निकट प्रश्न करता पड़ेगा ! ভূলাম্সনহা জানহা के साथ योग बहुत दिनों तक टिका नहीं रह सका । जहाँ श्रद्धा और सम्मान सहज ही मिल जाता हो, और इसके लिये क्रिसी कठोर तपस्या की आवश्यकता न समझी जाती हो, वहाँ आदर्श से भ्रष्ट होने में कितनी देर लगती है ? ऐसी हालत में तपस्या और आदर्श धीरे-धीरे शक्तिहीन और निर्जीव हो जाते हैं । सात्विकता ओर राजसिकता के स्थान पर भी जड़ तामसिकता विराजमान होती है । इसी प्रकार धीरे-धीरे तपोभूमि, तीर्थो ओर मठोंसे व्याप्त हौ गई । आचार्य और तपस्वीगण महन्तो ओर षण्डो के रूप में प्रकट हृए | जिन लोगों के ऊपर समाज के नेतृत्व का भार था वे लोग सरल और अनाडम्बर जीवन छोड कर बडी-बडी नौकरियों ओर जघन्य व्यवसायों मे जा फँसे । पैसा ही उनका ध्येय हों उठा । ऐसी अवस्था में वे अगर पुराने सम्मान का लोभ न छोड़ तो काम कैसे चलेगा ? दोनों ओर की सुविधा क्या एक ही साथ भोगी जा सकती है। 'हंसब ठठाइ फुलाउब गालू' एक साथ कैसे होंगे ? क्या ही अच्छा हो यदि वे लोग स्वेच्छा से कोई एक ही सुविधा चुन लें--पुरावा सम्मान या नया आराम । दोनों का लोभ न करें तभी कल्याण है । शास्त्र जोर देकर कहते हैं कि ब्राह्मण का आदर्श उच्च और महान होना चाहिये । उस आदर्श से भ्रष्ट होने पर जन्म से ब्राह्मण होने पर भी उसका ब्राह्मगत्व जाता रहता है | इसी लिये स्कन्द पुराण कहता है कि राजद्वार पर वेद बेचने वाला ब्राह्मण पतित है (प्रभास खण्ड, प्रभास क्षेत्र महात्म्य 207122-27), सदाचारहीन, सूदखोर और दुविनीतिपरायण ब्राह्मण शुद्र हैं (वही 28-34) । सूदखोर तो अस्पृश्य होता है। आपत्ति काल में यदि कोई सूदखोरी से जीविका निर्वाह करे, तो स्नान करने से महज उस समय के लिये पवित्र हो सकता है। यहाँ तक कि क्रियाकर्मान्वित होकर भी यदि ब्राह्मण बेद विद्या हीन हो, तो वह शूद्र हो जाता है। (सौरपुराण 17186-39) लेकिन केवल वेद पढ़ना ही ब्राह्मणत्व के आदर्श के लिये पर्याप्त नहीं है । वेद पढ़ कर भी विचारपूर्वक जो उसका तत्व न समझ सके वह ब्राह्मण शूद्र-कल्प अपात्र है (पद्मपुराण, स्वर्ग: 26135) ।




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