केशव - ग्रंथावली भाग - 3 | Keshav-granthawali Part-3

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Keshav-granthawali Part-3 by विश्वनाथ प्रसाद मिश्र - Vishwanath Prasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संपादकीय দশ दूसरी प्रति कौ पुष्पिका है-- श्री संबत्‌ु १८८८ श्रावण कृष्ण प्रतिपदार्याँ चंद्र- बासरे समाप्त शुभमस्तु' । लिखक का नाम नहीं है । दो टीकाओं के पाठों का भी उपयोग किया ग्रया है--पहली श्रीजानकीप्रसाद की 'प्रकाशिका' टीका है जो सं० १८७२ में लिखी गई ओर मुद्रित हो चुकी है । दूसरी स्वर्गीय लाला भगवानदीनजी की “केशवकौमुदी' टीका है जो सर्वप्रथम सं० १६८० में मुद्रित हुई थी। “अन्यत्रा संग्रह-ग्रंथों में मिलि पाठ के लिए है। इन संग्रह-ग्रंथों का विस्तृत विवरण विस्तारभय से छोड़े देते हैं । जैसा पहले कहा जा चुका है। अद्वारहवीं शती के अंतिम चरण के आसपास से हस्तलेखों में मेल वहुत होने लगा । कविंदों ने यदि किसी प्रति की अनुलिपि होते समय उस पर अपनी काव्यदृष्टि डाली तो पाठभेद भी किया और यथास्थान परिवधंन भी । “रामचंद्रचंद्रिका' के जिन हस्तलेखों का उपयोग किया गया है वे इस सीमा के अनंतर के ही हैं। इसलिए इनमें के कुछ प्रवधित अंश पाठशोघ के अनंतर स्वीकृत रूप में रह गए हों तो असंभव नहीं है | जैसे पंचवटीवाले कालदूषणयुक्त प्रसंग की चर्चा की गई है । यह प्रस्तुत संस्करण के आधारभूत सभी हस्तलेखों और टीकाओं में है। पर जैसा पहले कहा गया है, संदेह के लिए अवकाश हो गया है । “रामचंद्रचंद्रिका' के प्रकाशों के आरंभ में कथाप्रसंगसूचक दोहे दिए गए हैं। ये किसी प्रति में हैं किसी में नहीं हैं और किसी में कुछ प्रकाशों में हैं, सबमें नहीं हैं । इसलिए इनका संग्रह “रामचंद्रचंद्विका के 'परिशिष्ट” में किया गया है। कथाप्रसंग के आरंभ में सूचना देना केशव की पद्धति है, क्योंकि उन्होंने 'विज्ञानगीता' में भी यही पद्धति ग्रहण की हैं। वीरचरित्न में ऐसा नहीं है । “रामचंद्रचंद्रिका' में विविध छंदों का व्यवहार है । उन छंदों के लक्षण भी साथ- साथ दिए गए हैं । कुछ लक्षण तो भिखारीदास के 'काव्यनिर्णय' के भी हैं । कुछ का ठीक पता नहीं । कुछ केशव की 'छंदमाला' के हैं । रामचंद्रचंद्रिका' के संबंध में कहा जाता है कि पिंगल के उदाहरण एकत्न करने को दृष्टिपथ में रखकर उसका निर्माण हुआ । इनकी 'छंदमाला” में उदाहरण “रामचंद्रचंद्विका” के पर्याप्त दिए गए हैं; इसलिए संभव है कि नए नए छंदों के साथ लक्षण भी दिए गए हों । स्वयम्‌ केशव ने ही यह योजना रखी हो । कुछ लक्षणों में केशव की छाप भी है । वे उन्हीं के हैं। पर हो सकता है कि अनुलिपि के समय बहुत मे अंश छट गए हों जिनकी पति बादमें अन्यों के द्वारा की गई हो | इससे लक्षण ओरों के दे दिए हों । सव्ंत्न नियमित क्रम आधारभूत हस्तलेखों में न पाकर छंदलक्षण का संकलन परिशिष्ट' के अंतर्गत ही किया गया है। इसकी छानबीन से कई तथ्यों का पता चलता है! केशवदास के पिंगल-ग्रंथ का पता परंपरा को था! उसके हस्तलेख अवश्य प्रचलित रहे होंगे | क्योंकि छंदों के क्रम में ऐसा भी लिखा मिलता है--'यह केसोदास के मते इसरो रूपमाला हैः ` | “रामचंद्रचंद्रिका' के किसी किसी हस्तलेख में फलश्रुति मूल ग्रंथ से भिन्न भी दी गई है | किसी किसी में केशव” छाप भी है। पर ऐसे छंदों के केशवक्ृत होने में संदेह है । दो उदाहरण दिए जाते हैं--




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