मृत्युंजय | Mrityanjaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ফাই. ९९ ५ जर्कों देवी भवति यदेनसर्चयन्ति | अर्कः भसन्‍धचो भवति यदनेनाचन्ति । श्रकसनने লন্রলি ও দূ ্বিলী 0 ट 33 प्मचेतक्चूता(न । अक्तो नवति श्तु कटुकञ्च निष्ध० ने० ० ५४ ॥ सव भूतौ का आधार भौर सत्कार करनेहारा जो टोता है सो अक दै । प्राण ही खव भूतौ -का अकतं है त्यु, अर्क, प्राण संनाघान्‌ ओर अश्र धर्म रान्‌ यदी त्वष्ट का तृतीय मुख है । सोम+सुप+प्राण- अश्लि, सूर्य चा मत, यही तीन मुख के एक भाव की संज्ञा है।) - शिर:---पश्रीयुतश्राथ्रीयततेततुशिरः । सस्तकस्‌ ¦ शिरस, शिरांसि । उणा० ४०१५४ ॥ आधार वा आश्रय वाचक की शिए+यह संज्ञा होता है। इन तीनो त्विष कमं करने वाले शिर परस्पर एक दूखरों के आधार पर झ्थित होते इए कायं करते दै तव महान्‌ वलवान्‌ अवसा मे रहते हैं, परन्तु परस्पर का आधार छोड़ देते हँ तव सत्यु अचस्था को प्राप्त होते हैं। सोम, झछुरा और प्राण इन तीन सत्तावान्‌ शक्ति से विश्व की सब क्रिया चली है। इन तीनों क्रिया का एक भावही मन शक्ति है । इसलिये मन के इन तत्त्वों का यथावत्‌ जानने से मन खरूपी एक महान्‌ भूत महान शक्ति आत्माके अंकुश में आजाती है तब उसको इच्छापूर्वक जहां चाहते हो उस संसार के खर्म वा जगत्काय॑ के अन्द्र जो २ कार्य दवते विगड़ते हैं: उनमें से किसी कार्य में लगा सकता है 1 अथात्‌ मन छरा सत्यस्वरूप ज़ानकर उससे -अभ्यासयोग (सयर॒हित्‌ होकर सुमश्व॒स्था) करने . ~




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