सोहन काव्य कथा मंजरी | Sohan Kavya Katha Manjari

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Sohan Kavya Katha Manjari  by आचार्य प्रवर - aacharya pravar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राज रात भर खेलेंगी यहां, चांद दे रहा साथ। धवल चांदनी छिटकी रही है मानो सुखद प्रभात जी ॥२५॥। मानवती कहे श्राज नहीं हम कल, खेलेंगे खेल । कल तो हमारा विवाह होयेगा, फिर कब होगा मेल जी 11२९।। विवाह संबंधी बातें छिड़ गई, चारों कहें तत्काल । सास, ससुर, पति कंसे होंगे, कैसा मिले ससुराल जी 11३०।। ना जाने केसे होगे वे, ऋजु वा होय कठोर। परतन्त्रता में बंध जवेगी, स्वतन््रताकीद्धोरजी ।1३१।। सास ससुर श्ररु पति श्राज्ञा में रहता है दिन रैन । मानवती सुन सबकी बातें बोली नहीं एक बेन जी 11३२॥ मौन देखकर चारों बोलीं, श्रपनी नहीं सुनाय। किन्तु यह्‌ बंधन तो सुनले, एक दिन तुक पर श्रायजी ।३३।। मानवती कहे बंधन नहीं यह्‌, कत्तेंग्य श्रपना मान । मर्यादा में सदा रहें हम इसमें श्रपनी शान जी ।1३४॥। वे बोली वहां मर्यादा कया, श्राज्ञा होय प्रमाण । नार पुरुष की दासी होती, चले न कुछ लो जान जी 11३५॥। जीवन संगिनी, सह धमिणी, सहचारिणी नार। दासी नहीं कहलाती तारी, मानवती प्रनुसार जी ।३६॥ एक सखी कहे सुनलो मेरी, है जग का व्यवहार । दासी रूपमे सदा रहै वहु, चले श्राज्ञा श्रनुत्तार जी ।1३७॥ कंसा भी हो पागल कपटी, दुराचारी भरतार। श्रवगुणा कितने भी हो माने, पूज्य रूप में नार जी !1३५।॥। मानवती कहे नहीं मान्‌, वे कहती लोगी লাল। विवाह बाद पति बंधन में यह श्रकड़ सभी निकलेगी ले जान जी 11३९।। प्रकड़ पति यदि मिला मुझे तो दू गी श्रकड़ निकाल | सुनकर सखियां हंस गई सारी बोली एक तत्काल जी 11४०॥। श्ररि ! बताकर श्रश्व पति के देगी लगाम लगाय । गाली देकर पांव पूजाये चरणामृत पिलाय जी 11४१॥। मानवती कहे सखियां सुनलो जो जो बात सुनाई । विश्वास दिलाती हूं मैं तुमको दू गी कर दिखलाई जी ।1४२।। सखियां बोली तू तो तन या धनपति की कहलाय । गरीब से कर विवाह उसे तू श्राज्ञा मांहि चलाय जी 11४३॥। गरीब ही क्यों लक्ष्मीपति भी पति मुझे मिल जाय । शक्ति से नहीं बुद्धि बल से लूगी काम वनाय जी ॥४४॥। ३




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