हिंदी के अर्वाचीन रत्न | Hindi Ke Arvachin Ratna

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Hindi Ke Arvachin Ratna by डॉ० विमल कुमार जैन - Dr. Vimal Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भारतेन्दु बाबू हरिइचन्द्र < भारत-भूमि के विषय में लिखा है- हाय वहै भारत भुव भारी) सबही विधितं भई दुलारी ॥ भारतेन्दु जी राष्ट्र-प्रेमी होने के साथ-साथ हिन्दी-प्रेमी भी थे । इन्होंने (हिन्दी की उन्नति पर व्याख्यान' नामक पद्म की रचना की, जिसमें उन्होंने अपना हिन्दी-प्रेम प्रदर्शित किया है। यह उनका पद्च-बद्ध व्याख्यान था जो उन्होंने संवत्‌ १६३४ में हिन्दी-बद्धिती सभा में पढ़ा था। इस व्याख्यान में उन्होंने अपनी भाषा को सम्पूर्ण उन्नति का मूल बतलाया और सबको हिन्दी पढ़ने की प्रेरणा दी । किसी वस्तु से प्रेम होने पर उससे विपरीत वस्तुओं से स्वतः ही बेर हो जाता है। राजा शिवप्रसाद जी उदू के प्रशंसक थे भरतः भारतेन्दुजी ने उदू की बुराई की । इन्होंने हिन्दी की उन्नति पर इसके लिए “उर्दू का स्यापाः लिखा, जिसमें प्रथम गद्य में उसकी मृत्यु पर स्थापा मनाते हूए लिखते हैं--- अरबी, फारसी, पश्तो, पंजाबी इत्यादि कई भाषा खड़ी होकर छाती पीटती हैं ।' है है उदू हाय हाथ। कहाँ घ्िधारी हाथ हाय । मेरी प्यारी हाय हाय । मुंशी मुल्ला हाय हाय ॥ इत्यादि। इस उद्‌ कैस्यापेसे वे उर्द्‌ का उपहास तो उड़ाते ही हैं साथ ही श्ररबी, फारसी, परतो श्रौर पंजाबी का भी । नए जमाने की मुकरी में वे एक मुकरोी में अंग्रेजी का भी उपहास उड़ाते हुए दृष्टिगोचर होते हैं--- सब गृरुजन को बुरो बतावे। अपनी खिचड़ी अलग पकावे ॥ भीतर तत्व न भूठी तेजी। क्यों सखि सज्जन नर्हि श्रेंगरेजी ॥। भारतेन्दु जी बड़े सरस एवं विनोदी जन थे। उनकी फबतियाँ एवं व्यंग्य बड़ मनोहारी है । देखिए ग्रैजुएट एवं पुलिस पर सुकरियों में केसे सुन्दर व्यंग्य कसे है-- | तीन बुलाए तेरह आावें। निज निज विपता रोइ सुनावें। श्राँखों फूटे भरा न पेट । क्यों सलि सज्जन नहिं ग्रैजुएट ॥




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