साहित्यावलोकन | Sahityawlokan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आधुनिक हिन्दी कविता के “वाद? & किया, उसम दैवी संकेत श्रनुभव किया तथा नए-नए छन्दा की खोज की । इस तरह वस्तु और कला में अभिनवता प्रदर्शित की । 'काश्मीर-सुप्रमा? में प्रकृति की आलम्बन-रूप में स्वीकार कर उसका मनोहारी चित्रण किया । “प्रकृति इहों एकांत बैडि निज रूप संवारति। पल-पल पलटति भेष निके दुवि दिनि दिनि धारति ॥ जैसी पक्तियों री.तकालीन और हरिश्चन्द्रकालीन वस्तु वर्शन-परम्परा से निश्चय पथक्‌ है। प्रकृति मानवी के रूप में खड़ी हो हमे मुग्ध बनाती है। इसी तरह उनकी स्वर्गीय वीणा”? मे परोक्ष-ध्वनि भी स्वच्छुन्दतावाद की सूचना दे रही है--- “कहीं पे स्वर्गीय कोइ बाला, सुमंझु वीणा बज्य रही है सुरों को सगीत की सी कैसी सुरीली गृंजार आ रही है ।” >< রি २९ ১ भरे गगन में है जितने तारे इए है मदमस्त गत पे सारे समस्त ब्ह्माएड भर को मानो दो डेंगलियों पर नचा रहे है ।?” श्रीधर पाठक की ग्रक्ृति-प्रेम की परम्परा द्विवेदी-युग में भी मुकुटधर पाण्डे, लोचनप्रसाद पाण्डे आदि कवियों म॑ थोड़ी-बहुत जारी दिखलाई देती है पर उसम सवेना की प्रबलता श्रधिक नहीं है। छिवेदी-युग की काव्य आत्मा में आदशंवाद अधिक रहा हैं जो नीतिमता पर आधारित है। स्वच्छुन्दतावाद द्विवेदी-युग में प्रारम्भ होकर भी उसके नीतिवाद या आदशवाद का विरोधी नहीं रहा-प्रकृति का सहज ललित रूप-चित्रण, उसका मानबी और *वीकरणु स्वथा युग-घारा के अनुकूल है । आचाय द्विवेदी के सरस्वती-सम्पादन-भार से मुक्त होने के बाद हिन्दी कविता में नए. वाद का प्रचलन हुआ। यह वाद छायावाद के नाम पे पहिचाना जाने लगा पर इसकी अनेक शाखायें चल पड़ी जो रहस्यवाद, प्रतीक- बाद, हालावाद, झ्रादि कहलाने लगीं। ये बाद लगभग सन्‌ १६२० से १६२५ तक संचरित होते रहें । ऊपर कहा जा चुका है कि &वेदीजी की इतिबृत्तात्मक उपदेश- परक रचनाओ को शुप्कता से जनता ऊब उठी थी। अतः बह कविता का नया रूप देखना चाहती थो, ऐसा! रूप जो उसके हृदय को स्पर्श कर सके, उसे रस से




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