प्रथ्वीराज रासो भाग ४ | Prathviraj Raso Bhag Iv
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
724
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)क्ाव्य-सोष्हद
संयोगिता-हर॒ण प्रसंग प्रथ्वीराज रासो का सुमेरु 2 । यह वह स्थल है
जहाँ रासो का कथा-प्रवाह चरस सीमा पर पहुँच कर तीव्र गति से कथावसान की
ओर अग्रतर हुआ है, यह वह अवस्था है जहाँ परम पराक्रमी प्रथ्वीराज का प्रताप-
दीप निर्वाण से पूर्व अन्तिम वार प्रखर रूप से चमक उठा दे और यह वह विपय
है जिससे महाकवि की वाणी शत-सहसत्र भाव धाराओं में फूटकर द्विगुणित (रूप
से भ्रवादित ह॑ है यद सुख-विलास की वद् मनोरम की देखने को मिलती है
जो एर ओर सयोग-श्ध गार की सादकता को प्रकट करती है तो दूसरी ओर आगे
चलकर करुण रस की व्यव्जना को अधिक तीत्र एवं घनीभूत भी कर देती है ।
यहाँ ज्ञिस अविस्मरणीय युद्ध-कौशल का प्रदर्शन हुआ हे, वह जहाँ एक ओर
राजपूती आन, बान और शान का द्योतक है वहाँ दूसरी ओर तत्कालीन सामन्ती-
व्यवस्था के हास की ओर भी सक्रेत करता है ।
इस प्रकार विविध भाव-सरणियों और विचार-वाराओं का उद्गम-बिन्दु
यह प्रसग 'कनवज्ज” समय का मूलाघार है, जो इस चतुथ भाग का प्रारम्भिक समय
एव मुख्य अश है ।
' 'कनवज्ज! समय का प्रारम्भ पृथ्वीराज की ओतानुराग से उत्पन्न विरह-
दशा द्वारा किया गया है। गधवे हारा कन्नौज -की अनिनन््य सुन्दरी सयोगिता
के गुण श्रवण कर प्रशथ्बीरशज उसे प्राप्त करने को लालायित हो गयां--
सुक वरनन संजोगि शुन, उर लग्ग छुटि वान ।
खिन खिन सल्लै वार पर, न लहे वेद् विनान ॥
ओर इसीलिए उसने चन्द् के समन्त कन्नौज की आर प्रस्थान करने का मतव्य
प्रकट किया । प्रथ्वीराज के वचर्नो को सुन कर क्पिकी दृशा सूर्योदय ओर सूर्याप्त
समय के ऋमल्ञ तुल्य होगई--
सुनिय सुकषि इह चन्द वच. ना वुल्यौ सम राज ।
अवुज को दोऊ कठिन, उदय अस्त रवि राज़ ॥
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