सज्जनचिंतवल्लभ | Sajjanchitavllabh

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Sajjanchitavllabh by महाकवि मल्लिषेण - Mahakavi Mallishan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ षद्धावर्यकसत्कियापु निरतो धमोनुरागं बहन्‌ साद्धं योगिभिरात्मभावनपरो रत्नत्रयारुक्कतः ॥ ६॥ तू पश्युनारिनपुसकवारजित थान विषे नित तिष्ठ भिखारी । लेकर भुक्त अकारित जो, परगेह मिले विधिके अनुसारी ॥ पाल अवद्यक षटूखुक्रियारत, धर्म॑धुरन्धर हो अनगारी । साधुन साथ समागम आतमटीन त्रिरत्नविभूषणधारी ॥६॥ अथे- हे भिक्षुक, पराए धर जो अपने स्यि विना बनवाया हुआ दैवयोगसे छूखा सूखा भोजन मिल जाबे, उसे खाकर सामाधिक, स्तवन, चन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याल्यान भौर कायो- त्सगेरूप छह सात्रियाओंमें लीन होकर दश्चलक्षणरूप धमेमे अनुराग रखकर, आत्मभावनामें तत्यर रहकर और सम्यद्वशेन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रयसे अलंकृत होकर योगी पुरुषोंके साथ ऐसे स्थानमें तिष्ठ, जहां कि ल्लियों नपुसकों और पश्चुओंका आवागमन न हो | दुगेन्धं वदनं वपुभंरभतं भिक्नारनाद्धोजनं शय्या स्थण्डिकभूमिषु प्रतिदिनं कव्यां न ते कपटं । ण्डं धरण्डितमदधेदग्धश्चववच्ं दश्यते भो जनेः साधोऽ्ाप्यबटलाजनस्य भवतो गोष कथे रोचते ॥ ७॥ आवत गन्ध बुरी मुखते, अरू धूसर अंग भिछाकर साना । भूमिकटोरविषे नित सोवन, ना करिमे पटकौ इ टिकाना ॥ . मुडित मुंड परे दग रोकन, अधेजले शरतअंग समाना । नारिनके संग तहु अरे मुनि, चाहत कयौकर बात बनाना॥५७॥ अथे--हे साघु, तेरे मुंहमेंसे दंतधावन नहीं करनेके कारण बुरी गंध आती है, शरीर तेरा मैठसे लिपटा हुआ है, भिक्षा-




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