रविन्द्र नाथ की लघु कथ्यन | Ravindra Nath Ki Laghu Kathyan

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Ravindra Nath Ki Laghu Kathyan by युगजीत नवलपुरी - Yugajeet Navalpuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कच्चे फोंपड़े। पढ़ाई पेड़ों को छाया में होती थी। अब भी वहाँ कक्षाएँ पेड़ों के नीचे ही लगती है । धीरे-धीरे कई ग्रुणी सहकर्मी आजुटे।वे भी आदर के लिए सांसारिक खुख की आशा छोड़कर आये थे। छात्र-संख्या बढ़ी। शिक्षण के विविध नियमों के परीक्षण होने लगे। विद्यालय चल निकेला। फीस मामूली-सी ली जाती थी। शिक्षक भी बहुत नामूली वेतन लेते । खान-पान ओर पहनावा निहायत सादा था । समौ नमे पावि रहते । पर आनन्द की मात्रा प्रचुर थी । गुर-शिप्य-सम्बन्ध प्यार- भरे थे, मानस के विकास के लिए अनन्त अवकाश था। विद्या कितावी पढ़ाई तक ही सीमित नही थौ) बागवानी, शरीर-साधन, खेल-कूद, समाज-सेवा, प्रकृति का अध्ययन और उसके आनन्दों का उपभोग आदि भी पढाई में ही शामिल थे। विद्यालय के जीवन में संघपं कौ कठोरता होने पर भी आनन्द- ही-आनन्द था । रुपये-पैसे का अभाव बना ही रहता था 1 कवि तौ अपना सर्वेस्व दे ही डालते थे, दूसरे वन्धु-बान्धव भी कुछ-न-कुछ जुटाते रहते थे। जैसे-तैसे काम चल जाता था । आश्रम बने साल-भर भी नहीं हुआ था कि मृणालिनी देवी का देहान्त हो गया। माँ के विछोह से मर्माहत सन्‍्तानों को कवि ने भुजाओं में समेट लिया और अब वह केवल उनके पिता ही नही, उनकी माँ भी वन गए। तभी तो उन्होंने बच्चों के लिए इतनी सुन्दर कविताएं लिखी। १६०३ से १६०७ तक बडे दुः्ख के दिन रहे । उनकी दूसरी वेदी रेणुका, उनके पूज्य पिताजी और उनका सबसे छोटा बेटा शमी, तीनों एक-एक करके चल बसे और कवि को गहरा शोक दे गए । पर पारवारिक शोक से उन्होंने नतो अपना जी छोटा किया, और न मन में कोई कुड़वाहट आने दी । इन वर्षो में भी उन्होंने एक-से-एक অত पुस्तकें लिखीं । १७




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