गीता प्रवचन | Geeta-pravchan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : गीता प्रवचन  - Geeta-pravchan

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

Author Image Avatar

हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।

विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन्‌ १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन्‌ १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन्‌ १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध

Read More About Haribhau Upadhyaya

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
पहछा अन्यि १५ वृत्ति कैसे छा सकता था ? संन्यासके नासपर यदि वहु जंगल्मे जाकर रहता, तो वहो हिरन मारना झुरू कर देता । अत भगवानने साफ ही कहा--“अजन, जो तू यह कह रहा है कि में लड़,गा नहीं, सो तेरा भरम ह। जाजतक चो तेरा स्वभाव वना हा है, वह वेद्य ठ्डाय तना कमा नही माननका 1 अजंनको स्वधमं विगुण साद्धूस होने ठ्गा। परत रवथमं कितना टी विगुण हो, तो भी उसीमे रहकर सयुष्यको अपना विकास कर लेना चाहिए. क्योकि उसीमे रहनेसे विकास हो सकता है। इसमे अभिमान- का कोई अश्न नहीं है। यह तो विकासका सूत्र है। स्वधर्म ऐसी वस्तु नही है कि जिसे वडा ममझऊर ग्रहण करे और छोटा ममझकर छोड़ दे | वस्तुत बह न वडा होता है, न छोटा। बह हमारे व्योतका हाता है] श्रेयान्‌ स्ववसा विगुणः इस गीता-बचनमे श्वम चच्छका थे हिंद-बर्म, इसठास इसाई-वर्म आदि जैसा नही है। प्रत्येक व्यक्तिका अपना भिन्न-भिन्न वर्म है। मेरे सामने यहाँ जो ढो सौ व्यक्ति मोजूट ই. उनके दो सो धरस है। मेरा व भी जो दस वर्ष पहले था, वह्‌ आज नही हे । आजका दस वपे वाठ नही रहनैका । चिंतन ओर अनुभवसे सेसे-जसे व्रत्तियोँ बदलती जाती है, वेसे-बैसे पटलेका धर्स छटता जाता और नवीन बे प्राप्त होता जाता हैं। हठ पकड़कर कुछ भी नहीं करना है। दूसरेका वस भले ही श्रेष्ठ मादम हो, उसे ग्रहण करनेमे मेरा कल्याण नहीं है। सूयका प्रकाश मुझे प्रिय है। उस সন্ধান ঈ बढ़ता रहता हैं। सूर्य मुझे बंदनीय सी है। परतु इसलिए यदि में प्रथ्वीपर रहना छोडकर उनके पास जाना चहूँगा, तो जलकर खाक हो जारऊँगा। इसके विपरीत भछ्े ही प्रथ्यीपर रहना विगुण हो, सूयके सामसे प्रथ्वी विल्कुल तुच्छ हो, वह स्वन्यकाणी न हो; तो भी वतक सूयके तेजको सहन करनेकी सामथ्य मुश्नस न जा जायगी, तबतक सयसे दूर प्रथ्वीपर रहकर ही मुझे अपना विकास कर लेना होगा। सछलियोसे यदि कोई कहे कि पानीसे दूध कीमती है, तुस




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now