रेडियो नाट्य शिल्प | Radio Natya Shilp

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Radio Natya Shilp by डॉ. विश्वनाथप्रसाद वर्मा - Dr.Vishwanathprasad Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रंगमंच-नाटक ओर रेडियो-नाटक रेडियो-नाटक लिखनेके पहले रेडियो-साठक लिखनेके आकीक्षी लेखकोके मनमे यह बात अच्छी तरह बैठ जानी चाहिए कि रेडियो-नाटक रगमचके नाटकोसे बित्कुछ भिन्न हे, दोनोके लिखनेकी प्रणाली अलग-अलग है | रेडियो-नाटकके सबधमे सामान्‍य घारणा यह हे कि वह रगमचके नाटको- का ही एक परिवत्तित रूप है। ऐसी धारणा उत्पन्न करनेमे अपने यहाँके प्रसिद्ध लेखकोका भी हाथ है। वे रगमचके लिए लिखे हुए अपने नाटकोमे थोडा परिवर्त्तन कर उन्हें रेडियो-स्टेशनोमे प्रसारित करनेके लिए दे देते है, अथवा रेडियोसे प्रसारित नाटकोमे स्थान-स्थानपर रगमचके उपयुक्त प्रतित्यासं लिखकर उन्हे पत्र-पतिकाओमे प्रकादित कराते है । इससे उन्हे आर्थिक दृ ष्टिसे छाभ अवश्य होता है, पर रेडियो-नाटकके सबधमे सामान्य पाठकोकी धारणा सही नही बन पाती । कुछ लेखक भी ऐसे हु, जो स्वयं इस धारणाफे विश्वासी है । उदाहरणकै लिए, एक प्रसिद्ध नाटककारके नाटक-स ग्रहकी भूमिकामे एक पवित्त इस प्रकार हे--'मेरा विश्वास हे, जैसे स्टेजके नाठक कुछ हेर-फेरके साथ रेडियोके उपयुक्त बनाये जा सकते हैं, बसे ही ध्वनि-रूपकोकों भी आवश्यकता होनेपर स्टेज-ताटक बनाया जा सकता है । यह बात कुछ नाटकोके लिए भले ही सही हो, पर जो नाटक रेडियोको ही दृष्टिमे रखकर लिखे जाते है, उपर नही खागु होगी । अन्तमे दिये भये नाटकोको, विरोष रूपसे वे अभी भी कवारी है को पकर आप सोच सकते हूँ कि क्या उन्हें रगमचपर प्रदर्शित किया जा क़कता है। सच बात यह है कि रेडियो-नाटककी कछा एक स्व॒7न्‍्त्र कछा है। उसे जाननेके लिए सबसे पहले हमे समझ लेता चाहिए कि रगमनच्के नाटकोसे रेडियो- नाटक किन-किन बातोमे भिन्न है। रगमच-ताठक दुश्य और श्रत्य दोनो हे। उप्तके प्रभावों हम आँख और कान दोतोके द्वारा ग्रहण करते हैं। दृश्य होतेफके कारण उप्तकी अभिः




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