अष्टावक्र - गीता | Astavakra-geeta

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Astavakra-geeta by राय बहादुर बाबू ज़ालिम सिंह - Rai Bahadur Babu Zalim Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला प्रकरण । ९ हैं। और पाँचों तत्त्वों का समुदाय-रूप इन्द्रियों का विषय जो यह स्थूल शरीर है वह भी तुम नहीं हो क्योंकि शरीर क्षण- क्षण में परिणाम को प्राप्त होता जाता है । जो बाल-अवस्था काशरीर होता है बह कुमार अवस्था में नहीं रहता है । कुमार अवस्थावाला शरीर युवा अवस्था में नहीं रहता । युवा अवस्थावाला शरीर वृद्ध अवस्था में नहीं रहता । और आत्मा सब अवस्थाओं में एक ही ज्यों का त्यों रहता ह इसी वास्ते युवा और चृद्धावस्था में प्रत्यभिज्ञाज्ञान भी होता है अर्थात्‌ पुरुष कहता है कि मैंने बाल्यावस्था में माता और पिता का अनुभव किया । कुमारावस्था में खेलता रहा युवा अवस्था में स्त्री के साथ शयन किया । अब देखिये-अवस्थाएं सब बदली जाती हैं पर अवस्था का अनुभव करनेवाला आत्मा नहीं बदलता है कितु एकरस ज्यों का त्यों ही रहता है यदि अवस्था के साथ आत्मा भी बदलता जाता तब प्रत्य भिज्ञाज्ञान कदापि न होता । क्योंकि ऐसा नियम है कि जो अनुभव का कर्ता होता है वही स्मृति और प्रत्यभिज्ञा का भी कर्ता होता है । दूसरे के देखे हुए पदार्थों का स्मरण दूसरे को नहीं होता है । इसी से सिद्ध होता है कि आत्मा देहा- दिकों से भिन्न है और देहादिकों का साक्षी भी है । जो देहादिकों से भिन्न है और देहादिकों का साक्षी भी है है राजन उसी चिद्रप को तुम अपना आत्मा जानो । जसे घरवाला पुरुष कहता है-मेरा घर है पलँग है भर मेरा बिछौना है । और वह पुरुष घर और पलंग आदि से जसे जदा है वसे पुरुष कहता है-यह मेरा दारीर है ये मेरे इन्द्रियादिक हैं । जो शरीर और इनच्द्रियों का अनुभव




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