प्रवासी की आत्म कथा | Pravasi Ki Aatm Katha
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
38 MB
कुल पष्ठ :
667
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं. भवानी दयाल जी सन्यासी - Pt. Bhawani Dayal Ji Sanyaasi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)४ ११ ४
ठाकुर साहबकी यही राय ओर सलाह थी कि मुभे स्वयं अपनी
श्रात्म-कथा लिखनी चाहिए । मेंने भी सोचा कि जब कहानी छप ही चुकी
तो उसे इस बार सर्वाज्ञपूर्ण बना देना चाहिए। सन् १६४९ में जब में
दमा ओर निमोनियाके प्रचंड प्रकोपले किसी तरह झ्त्युके मुँ हसे बच
निकला तो मेरी पुत्र-वधू प्रकाशवतीने भी यही श्चाग्रहश्रारंम किया कि
मुझे अपनी आत्म-कथा तो लिख ही देनी चाहिए ।
उसी साल मई में मेंने इस आत्म-कथाकों लिखना आरंभ कर दिया
था, पर आ्राज दो सालके बाद समाप्त कर पाया हूँ जवर कभी यह
संकल्प करके लिखने बेठता था कि इसको पूरा करके ही दम लूँ गा तब-
तब प्रवासी भारतीयोंका कोई-न-कोई ऐसा काम थ्रा पड़ता था कि महीनों
फिर लिखनेका अ्रवसर न मिलता था। श्रभी शायद साल-भर और लग जाता;
किन्तु ठाकुर साहबने लिखित अंश दिल्लीके प्रसिद्ध 'राजहंस प्रकाशन 'के
हवाले करके मुझे इसको पूरा करनेके लिए बाध्य कर दिया। इस बार
जिस रूपमे मनि इस पुर्तकको तयार किया है बद श्रवासीकी कहानीः-
ते नितान्त भिन्न रै यह एक नईं चीज बन गई है, इसलिए इसका नाम
भी बदलकर शप्रवासीकी श्राव्म-कथाः रख दिया गया हे ।
वास्तवमें श्रवासीकी श्रात्म-कथ!' प्रवासी भारतीयों दुगंतिकी
गाथा है। प्रवासियोंकी कथा इतनी करुणा-पूर्ण है कि कहनेमें वाणी
थर्राती है--लिखनेमं लेखनी कॉपती है। समुद्रकी लहरोंको चौरकर
उनको श्राहें जब यहाँ पहुँचती दें. और मेरे कानोंमें पड़ती हैं तो हृदय
ब्यथासे भर आता हे-सिर घुनकर रह जाता हूँ । व्यथित हृदयको जरा-
লা অন্কা भी असझ्य होता है, पर यहाँ तो चोट-पर-चोट लग रही हैं ।
यदि हृदय चीरा जा सकता तो उसे चीरकर दिखा देता कि वह व्यथाका
भंडार बन गया है। इस आत्म-कथामें उसी व्यथाकी अ्रभिव्यक्ति है ।
कथा कहने बेठा हूँ, पर--
“यही नहीं किं हाथ कंपते, हिय भी केषता श्ाज ।
आत्म-कथाका पूरण केसे होगा गुरुतर काज ॥
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