दक्षिण अफ्रिका के मेरे अनुभव | Dakshin Africa Ke Mere Anubhav

Dakshin Africa Ke Mere Anubhav by पं. भवानी दयाल जी सन्यासी - Pt. Bhawani Dayal Ji Sanyaasi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महात्मा जी के आश्रम मैं गभग चौद्हद वर्ष हुए; में हिन्दुस्थान के अपने घर से इस '्सिप्राय से निकला था कि दक्षिण श्फ्तिका पहुँचकर खूब चैन की बंशी बजाउँगा; लेकिन भविष्य की विशाल गोद में कौन-कौन सी घटनाएँ छिपी हुई हैं, उसे जान लेना मानवी-बुद्धि से बाहर की बात है । पिछले अध्याय में पाठक पढ़ चुके हैं कि कितने कष्ट और व्यनावश्यक खन्चें के बाद हसारा बन्दी-मोचन हुआ । जहाज से उतरने पर जहाँ एक 'ओर द्रबन की सुन्दर रचना; बिरिया-पहाड़ी पर बने हुए सकानों की मनमोहिनी छटा; छोटी-छोटी वाटिकाओं में लगे हुए पेड़ों और फूलों के नेत्र-र्षक दृश्य; सड़कों की चौड़ाई. और सफाई; जनता का कोलाहलमय जीवन तथा इघर- उधर का भीड़-भड़क्का देखकर हस सन्त्र-सुग्ध हो रहे थे, वहाँ दूसरी ओर एक ऐसी घटना घटी; जिससे मेरे जीवन का




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