वेदविर्भाव | Vedavirbhav
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
256
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about तुल्लक निजानंद जी महाराज - Tullak Nijanand Ji Maharaj
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ভীত
इसके अनन््तर पुनः स्वामी दशशनानन्दर्जी “बोले “कि “जनियोंके साथ
अजमेरसें होनेवाले शास्याथमें पं० गोपालदासजीकी युक्तियाँ बड़ी प्रथल
थी । सुक दिखाई दरहा है कि भविष्य से उनकी युक्तियोंका खण्डन
फरनेवाला समाजमें कोई भी नहीं है! । ह
स्वामीजीके हृदयपर इस बातका चड़ा गहरा प्राव पडा । जिसके
कारण आपने अपने मनसें यह दृढ़ निश्चय किया कि में हस कमीको
अवश्यमेव पूरा करूंगा । अतएव सब व्यापार वन्द् करके श्राप संस्कृत
पदनेकेलिये बनारस चल्ले गये ।
वहाँ जेवदर्शनोंके साथ साथ आप संस्कृतका अध्ययन करने लगे |
किन्तु आय॑ विद्यार्थी होनेके कारण आपके विद्याध्ययनमें एक बढ़ी भारी
बाधा आ उपस्थित हुईं। जिसके कारण आपको काशी छोड़नी पड़ी ।
चसे चलकर बनारस और जौनपुर -के बीच सें एक माम है, उसमें
पं० पातज्जजलिकी अपनी एकं पाठशाला थी । स्वामीजी पर्डितजीसे
वियाध्ययन करने लगौ । परिडतजी यदे उदार श्रौर सहृदय पुरुष थे ।
अतः वहाँ आपका अध्ययन बड़े प्रेम, संतोषके साथ सम्पन्न हुआ ।
इस प्रकार स्वामीजी श्रन्य स्थार्नोपर -पढ़ते-पढ़ाते सन् ३8१८ में
भिवानी लोट आये और यहां आकर आपने कपड़ेकी दुकान करली |
परन्तु उन्हीं दिनों सिवानीमें जन साघुओंका चतुर्सास हो रहा था |
स्वाप्तीजीने उनके साथ चादु-दिदाद् करना शुरू कर दिया । অহ पिचाद
नित्य बढ़ता ही गया और अन्तसें इस विवादने एक चहद् रूप धारण
,कर लिया । हर
तत्पश्चात् स्वामीजीको दुकान छोष् कर रातद्न जैन थोके स्वा-
ध्यायसें लगना पड़ा। जो कुछ आपके पास पू'जी थी वह भी जेनग्रथोंक
खरीदनेमें बयय करदी । अतः एक हजार रुपयेका नुंकसान देकर दुकान
'छीड़नी पढ़ी । उन्हीं दिनों कांग्रेसक आन्दोलन भी चालू होगया था।
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