वेदविर्भाव | Vedavirbhav

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Vedavirbhav by तुल्लक निजानंद जी महाराज - Tullak Nijanand Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ভীত इसके अनन्‍्तर पुनः स्वामी दशशनानन्दर्जी “बोले “कि “जनियोंके साथ अजमेरसें होनेवाले शास्याथमें पं० गोपालदासजीकी युक्तियाँ बड़ी प्रथल थी । सुक दिखाई दरहा है कि भविष्य से उनकी युक्तियोंका खण्डन फरनेवाला समाजमें कोई भी नहीं है! । ह स्वामीजीके हृदयपर इस बातका चड़ा गहरा प्राव पडा । जिसके कारण आपने अपने मनसें यह दृढ़ निश्चय किया कि में हस कमीको अवश्यमेव पूरा करूंगा । अतएव सब व्यापार वन्द्‌ करके श्राप संस्कृत पदनेकेलिये बनारस चल्ले गये । वहाँ जेवदर्शनोंके साथ साथ आप संस्कृतका अध्ययन करने लगे | किन्तु आय॑ विद्यार्थी होनेके कारण आपके विद्याध्ययनमें एक बढ़ी भारी बाधा आ उपस्थित हुईं। जिसके कारण आपको काशी छोड़नी पड़ी । चसे चलकर बनारस और जौनपुर -के बीच सें एक माम है, उसमें पं० पातज्जजलिकी अपनी एकं पाठशाला थी । स्वामीजी पर्डितजीसे वियाध्ययन करने लगौ । परिडतजी यदे उदार श्रौर सहृदय पुरुष थे । अतः वहाँ आपका अध्ययन बड़े प्रेम, संतोषके साथ सम्पन्न हुआ । इस प्रकार स्वामीजी श्रन्य स्थार्नोपर -पढ़ते-पढ़ाते सन्‌ ३8१८ में भिवानी लोट आये और यहां आकर आपने कपड़ेकी दुकान करली | परन्तु उन्हीं दिनों सिवानीमें जन साघुओंका चतुर्सास हो रहा था | स्वाप्तीजीने उनके साथ चादु-दिदाद्‌ करना शुरू कर दिया । অহ पिचाद नित्य बढ़ता ही गया और अन्तसें इस विवादने एक चहद्‌ रूप धारण ,कर लिया । हर तत्पश्चात्‌ स्वामीजीको दुकान छोष् कर रातद्न जैन थोके स्वा- ध्यायसें लगना पड़ा। जो कुछ आपके पास पू'जी थी वह भी जेनग्रथोंक खरीदनेमें बयय करदी । अतः एक हजार रुपयेका नुंकसान देकर दुकान 'छीड़नी पढ़ी । उन्हीं दिनों कांग्रेसक आन्दोलन भी चालू होगया था।




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