आर्य सिद्धान्त (चतुर्थ भाग) | Aarya Siddhaant (chaturtha Bhaag)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
193
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)এরাই
१४ अये सिद्ठु/न्त ॥ [ भागः ४ আনু]
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प्रवाह में पढ़ा शरीर म रभिमान रखने वाल्ला कि यकौ राढेतीन हाथ का में
हूं ऐसा जोवात्मा शरीररूप उपाधि के संयोग से किसी निम्र भोग देश और
काल में बंधा प्राप्त होता है उस सप्तय ज्ञान की प्रवृत्ति से परमात्मा की प्राप्त
नहीं साना জালা হিন্দ জুন सें बंधा उस के ज्ञास से दूर रहता है [ल्नॉक में भो
यही सिट्ठु हे कि जिस बस्त का जिस के ज्ञान नहीं न उस से उस को कुछ सुख
या उपकार होता हो तो भले हो पास रक्खा रहे पर उस के लिये हजरहों
कोश छे बेंसे परमेश्वर सब के अन्तःकरगा मे व्याप्त भी ' है पर जिय को उस का ज्ञास
नहीं उम्र के लिये बहुत दूर है ] और जब ज्ञान होता है तब्च शरोर से .मुक्त
हुआ दुःखसात्र से छूट जाता है। शरीर की वत्तमान दशा सें निश्चित भोग देश
छरीर काल को प्राप्त होता है ओर मस॒क्तद्शा में बन्धन से पृथक हुआ व्याप्त ब्रह्म
मं स्वतन्त्रता खे जस्त अग्नि जदि कौ रोक टोक कै विना हौ सवत्र विचरता हि
( व्योमवत् ) यह द्गुष्टान्त है जैसे संसार परभाथे दोनों दशा में आकाश ही में
वत्तेमान जीवात्मा संसार दशा में शरोर से बंधा होते से सवत्र अषका नहीं कर
सकता और परमाये दशा स नियत भोग देश और काल से छूटा मुक्त हुआ जते
सर्वश्र आकाश सं श्रंभता वेसे परमात्मा में भो বন্দনা ই
अति जे! (बुहुगेणेना०) कही उस सं भौ विरोध नहीं क्योंकि इस श्रति से
शरीरयुक्त हो जोीयात्मा का ग्रहण हो और शहद का न हो हस भेद को जानने
के स्िये वहां कोढे पद् नहीं जिस से निश्चय हो कि शरीरमाहित हो ज्ीवात्मा
अण है | श्रति का अये यह हे कि बुद्धि के गुण कान और आत्मा के सक्तारूप
आधार गण से अपने काय को सिद्दु करते हुए परसःत्सा से भिन्न अंतिसूच्म
जोबात्सा को योगीज्षन ज्ञनदृष्टि से प्रत्यक्ष करते हैं । अथोत् इम शरोर में दो
आत्मा हैं परमात्मा के व्याख्यान का तो पूर्ण से प्रकरण चना हो आता है वह तो
एक श्रात्मा है ही पर (अपरोऽपि दृष्टः) इस कथन से जौवात्मा का पृथक् होना
स्पष्टर॒ुप से कहा जाता है ठस मे यही भेद है कि जीवात्मा परमेश्वर के श्री
बद्दधि के गणों से अपना कार्य सिद्दु करता किन््त परमेश्वर बुद्धि वा जीवात्मा के
गण से स्वकायं सिद नष करता (नित्यः सवगतः) इस स्मृति भगवद्रीला के श्लोक
सं जीवारमा के वास्तविक स्वरूप का निरूपण फिया है यहां सबेगत शब्द से
सूचित होता है कि सम्पूर्ण जडु वस्तओं से सूक्म स्थन शरीर चारण कर प्रणिष्ट
ही रहा है जातिरूप से सत्र कार्य जगत से अवस्थित है सजे शब्द भी झधिकता
जताने के लिये कहा गया हैं जैसे कोदे कहे कि देवदस सच काम करता है इस
कथनं से अनेक कसे करना प्रतोत हो सकता है। जोवात्मा को अझण सानने
में इस प्रकार की श्रति स्मृतियां से कुछ बाचा नहीं होतो यदि कोद कारण
' था प्रभाणों से विशेष सिद्दु करे तो बसा उत्तर दिया जा सकता है श्रीमान् प०
नाथ्रास शर्मा को ने प्रभाणमात्र रख के अपनो प्रतिज्ञा फो सिद्ध करभा चाहा
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