मानव और मशीन भाग 1 | Manav Aur Machine (Vol i)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ८ 9 क्योंकि पेंजीदार यदि अपनी मशीनों में सुधार और उन्नति न करें तो वे दूसरों के सामने प्रतियोगिता में ठहर नहीं सकते । उधर ज्यों-ज्यों मशीनों में सुधार होता जाता है, त्यों-त्यों इधर श्रम और श्रमजीवियों की आव- श्यकता घटती जाती है। जिसका फल यह होता है कि श्रमजीवी वेकार हो जाते हैं और उनके भूखों मरने की नौबत आ जाती हैं। ( साम्यवाद ले० बाबू रामचन्द्र वर्मा, पु० ११८ ) ज्यों-ज्यों मशीनों में उन्नति होती जाती है, त्यों-त्यों माल भी बहुत ग्रधिक तैयार होता जाता है और बाजार की माँग से बढ़ जाता है | जो मात्र तैयार होता है उसका बाजार की माँग से अधिक होना बहुत ही स्वाभाविक ओर अनिवार्य है। इसका कारण है। माल की बिक्री तो समाज में ही होती है पर हम समाज में ऐसे लोगों की संख्या बराबर बढ़ाते जाते हैं, जिन्हें केवल उतनी ही मजदूरी मिलती है जितने में कठि- नता से उनका उदर पोषण हो सके और जहाँ समाज में अधिकांश सेख्या ऐसे ही आदमियों की हो जिन्हें केवल पेट भर भोजन मिलता है ओर जो दूसरी फालतू चीजें खरीदने में नितान्त असमर्थ हों वहाँ तरह- तरह के तेयार माल की बिक्री क्‍या होगी ? पूंजीदारी की प्रथा में यह एक दूसरा विलक्षण विरोध है कि जहाँ एक ओर वह बाजार की माँग को कम करती है वहाँ दूसरी ओर वह उसी माँग को अच्छे और बुरे सभी उपायों से बढ़ाने के लिए तैयार रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि गोदाम के गोदाम ऐसे तैयार माल से भर जाते हैं. जिन्हें बाजार में कोई पूछता भी नहीं । माल तो बिकता नहीं और व्यापारिक संसार में हाहाकार मच जाता है। एक वर्ग घोर दरिद्रता में कष्ट भोगे ओर दूसरे वर्ग में बहुत अधिक धन रहने पर भी हाहाकार मचे | ( साम्बवाद, ले० बाबू रामचन्द्र वर्मा, पु० १६ ) ऐसी आन्तरिक दुरावस्था में विदेशी बाजारों की खोज जोर-शोर से शुरू की जाती है। माल की बिक्री, मशीनों के




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